खास रिपोर्ट-----

ये भिखारी चाहते थे की इनके बच्चे भी
पढ़े--लिखें और समाज की मुख्य धारा से जुड़ें लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो
पाया। सब के सब बस भीख मांगने को ही विवश रहे। कड़ाके की ठंढ से पूरा बिहार
दहल रहा है लेकिन इन अभागों के लिए जिला प्रशासन ने ना तो अलाव की व्यवस्था
की है और ना ही इनके बीच कम्बल का वितरण ही किया है। प्लास्टिक और मामूली
छप्पर से बनी इनकी झोपड़ी में इनकी दुनिया बसती है, इनके तमाम सपने पलते
हैं।
दोजख में पड़ी यहाँ की बेस्वादी और बेईमान जिन्दगी को आज भी किसी
फरिस्ते के आने का इन्तजार है जो आकर इनकी बेरंग जिन्दगी में बहुतेरे रंग
भर जाए। कड़ाके की इस ठंढ में इनकी जिन्दगी बचनी मुश्किल लग रही है। बस्ती के
लोग कहते हैं की अभीतक इस ठंड में दो लोगों की जान भी जा चुकी है, आगे भगवान
जाने की क्या होगा।

देखिये इस बस्ती के लोगों को। जिला
मुख्यालय से सटे इस बस्ती में आजतक विकास की कोई किरण नहीं पहुंची
है। अभी खून को जमा देने वाली कड़ाके की ठंढ पर रही है लेकिन ठंढ से लड़ने के
लिए इनके पास कोई मजबूत हथियार नहीं है।
इस बस्ती में प्रशासन की तरफ से ना
तो अलाव की व्यवस्था की गयी है और ना ही कम्बल का ही वितरण किया गया
है। मासूम बच्चे लकड़ियाँ चुनकर लाते हैं तो आग का इंतजाम होता है।
यहाँ के
दर्द बेशुमार हैं। यहाँ के लोगों का कहना है की कभी भी कोई अधिकारी उनका
हाल--चाल देखने या पूछने नहीं आते हैं। यहाँ जिन्दगी से जंग लड़ रहे भीम
सदा, विजय ऋषि, मंजुला देवी सहित तक़रीबन सभी लोग चाहते थे की उनके बच्चे
पढ़ें और अच्छा संस्कार पायें लेकिन पेट की आग बुझाने में ही इनके सारे सपने
दफ़न
होकर रह जाते हैं।

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मुकेश सिंह, सहरसा टाइम्स |
आखिर
सरकार की बड़ी योजनायें किधर और कहाँ हैं। जरूरतमंद हाय--हाय और उफ़।। उफ़ कर
रहे हैं। टीस और दर्द के सैलाब में जिन्दगी यहाँ गुमनामी के अँधेरे में फना
हो रही है। नीतीश बाबू कंप्यूटर की भाषा और जमीनी सच का अंतर समझना
होगा। नौकरशाहों के दिए चश्मे से विकास की बड़ी--बड़ी इमारतों को मत
देखिये। अगर संभव हो तो निरीह और असहाय लोगों तक आपकी कालजयी योजनायें सही ढंग से उनतक पहुंचे
इसके लिए बेहद ठोस उपाय करें।