अक्टूबर 24, 2012

बाढ़ विस्थापितों के लिए बेमानी है पर्व--त्यौहार

आइये हम सब मिलकर इन्हे भी दशहरा की शुभकामनाये दे ..........
मुकेश कुमार सिंह,सहरसा टाइम्स:  सहरसा जिले के पूर्वी और पश्चिमी कोसी तटबंध के भीतर कोसी हर साल तबाही लाती है।हर साल हजारों लोग बेघर होकर यायावर हो जाते हैं।सही मायने में यह वह इलाका है जहां के लोग हर साल पहले उजड़ते फिर बसने की कोशिश करते रहते हैं।यानी उजड़ने और बसने का यह अंतहीन सिलसिला ताउम्र चलता रहता है।हजारों की तायदाद में बहुतों ऐसे बाढ़ विस्थापित हैं जो पिछले कई दशकों से तटबंध के किनारे या उसके आसपास बसे आजतक बस सरकारी मदद की बाट जोह रहे हैं।हम उन्हीं बाढ़ विस्थापितों में से हाल के वर्षों में अपना सबकुछ गंवाकर पूर्वी कोसी तटबंध के रिंग बाँध या फिर उसके आसपास आकर बसे और जिन्दगी से रोजाना जंग लड़ते मुफलिसों के दर्द से सनी जिन्दगी यानी सच की जलती तस्वीर दिखाने लाये हैं।यूँ तो सहरसा जिले के नवहट्टा,महिषी,सिमरी बख्तियारपुर और सलखुआ प्रखंड के कई ऐसे इलाके हैं हैं जहां तटबंध के आसपास अलग--अलग जगहों पर बाढ़ विस्थापित आकर बसे हैं।सभी की मुकम्मिल तस्वीरों को हम आपको एक साथ कभी भी नहीं दिखा पायेंगे।एक जगह की स्थिति को देखकर ही आप बांकी तस्वीरों को खुद ब खुद समझ जायेंगे।आज हम आपको नवहट्टा प्रखंड के पहाड़पुर स्थित रिंग बाँध पर पिछले तीन वर्षों से आकर बसे बाढ़ विस्थापितीं के दर्द से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं।हम बेबस हैं इसलिए दर्द में सने हजारों बाढ़ विस्थापित जिंदगियों को एक खबर में समेट कर आपको नहीं दिखा सकते। अभी का पूरा आलम माँ जगदम्बे की पूजा--अर्चना का है।हर ओर उत्साह और खुशियों में डूबकर लोग इस महान पर्व को सिद्दत से मना रहे हैं लेकिन इन बाढ़ विस्थापितों के लिए हर पर्व--त्यौहार बेमानी है।इनके लिए ना होली ना दिवाली और ना ईद और दशहरा।किसी भी पावन पर्व के मौके पर इनमें कोई हर्ष और उत्साह नहीं है।इन करमजलों के लिए सबकुछ फीका--फीका और बेस्वादी है।इनकी बेजा जिन्दगी फकत जिन्दगी बचाने और उसे सहेजने में ही निकल जाती है।जाहिर तौर पर यहाँ की हजारों बेबस जिंदगियां सरकार और तंत्र से अपने हक़ और हकूक को लेकर सैंकड़ों सवाल पूछती नजर आती हैं।
 दशहरा के पावन पर्व में सारा आलम न केवल भक्तिमय है बल्कि इस पर्व को लोग काफी हर्ष और उत्साह से मना रहे हैं।लेकिन इन बाढ़ विस्थापितों के लिए किसी भी पर्व का कोई महत्व नहीं है।पेट में दाना,सर ढकने के लिए छप्पर और तन ढकने के लिए कपडे का इंतजाम,इनके लिए मिल का पत्थर है तो पूजा---पाठ ये किसतरह से और क्योंकर करेंगे।बस माँ को पांच--दस रूपये का कभी हुआ तो किसी तरह से चढ़ावा चढ़ा देते हैं।बच्चे इस पर्व के मौके पर बहुत कुछ मांगते हैं लेकिन उनके पास कुछ भी नहीं है जिससे वह बच्चों का मन रख सकें।सुनिए इन दो महिलाओं को।इनके दर्द इनकी जुबान पर किस तरह से बयां हो रहे हैं।
यह बच्चियाँ तक़दीर से फ़क़ीर है।बाढ़ ने इसका घरबार--कुल जमापूंजी को निगल लिया।पिछले तीन साल से यह सपरिवार रिंग बाँध पर जिन्दगी बचाने की बस कवायद कर रही है।कहती है की सारा समय तो उसे नाम के घर को संभालने में ही गुजर जाता है तो वह पूजा--पाठ क्या करेगी।इसकी माने तो पूजा--पाठ और पर्व--त्यौहार अमीरों और सामर्थ्यवानों के लिए है।सरकार ने उनलोगों को आजतक कुछ नहीं दिया है।वे किसी भी पर्व--त्यौहार में खुश और उत्साह में रहने के लायक ही नहीं हैं।सुनिए इस बच्ची को।आपके सीने छलनी हो जायेंगे।
एक माँ उबालती रही पत्थर तमाम रात,बच्चे फरेब खाकर चटाई पर सो गए।सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाकर,मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।इन बाढ़ विस्थापितों का जीवन ही बेस्वादी है।पर्व--त्यौहार इनके जीवन में ख़ुशी और उत्साह की जगह उनके उपहास उड़ाते नजर आते हैं। काश कोई फरिस्ता---तारणहार आता और इनके जीवन में भी रंग भर जाता।महुआ न्यूज़ इस महान पर्व के मौके पर माँ जगदम्बे से इन पीड़ितों के दिन बहुरें,इसके लिए दिल से कामना करता

1 टिप्पणी:

  1. The problem is not only that people suffering from the koshi devastation are debarred from their selters but also they are suffered from many diseases. I think D.M. sir should take a healthy step for this major problem...please have a look at this
    http://www.slideshare.net/prabirkc/flood-preparedness-saharsa

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अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।