मंडल कारा सहरसा के पचास से ज्यादा बंदी पूर्व सांसद आनंद मोहन के
नेतृत्व में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर चले गए हैं.इस वर्ष ईलाज के अभाव
में तीन बंदियों की हुयी मौत की न्यायिक
जांच नहीं होने,मृतक बंदियों को मुआवजा नहीं मिलने,जेल के भीतर स्वास्थ्य
व्यवस्था में सुधार नहीं होने,जेल के भीतर विभिन्य तरह के काम करने वाले
बंदियों को मिलने वाले पारिश्रमिक में
अनियमितता,जेल के भीतर घटिया खाद्य सामग्री की आपूर्ति और जेल के भीतर
विभिन्य निर्माण कार्यों में अनियमितता सहित कई अन्य मांगों को लेकर बंदी
भूख हड़ताल को विवश हुए हैं.बताते चलें की अभी हड़ताल में शामिल बंदियों की
संख्यां करीब पचास है लेकिन आगे हड़ताल जारी रही तो में बंदियों की संख्यां
में क्रमवार
ईजाफा होगा.इस पुरे मसले पर फिलवक्त जेल प्रशासन ने हमसे कुछ
भी बोलने से इंकार कर दिया.
सितंबर 23, 2014
पूर्व सांसद के घर मिली युवक की लटकती लाश
इस मामले में सांसद ने
निष्पक्ष जांच की मांग के साथ--साथ जांच में पुलिस को भरपूर सहयोग करने का
भरोसा दिलाया है.जदयू में बड़ी
हैसियत रखने वाले कोसी इलाके के कद्दावर जदयू नेता और खगडिया के पूर्व
सांसद दिनेश चन्द्र यादव के आवास के बाहर मेले की शक्ल में लोगों का हुजूम
जमा है.ये सारे लोग किसी दावत में नहीं आये हैं बल्कि एक युवक की जो लाश
मिली है उसके पीछे का रहस्य क्या हैं.यानि यह हत्या है या फिर आत्महत्या,इस
सच को यहां मौजूद हर कोई जानना चाहता है
चूँकि मामला हाई प्रोफाईल है,इसलिए पुलिस के अधिकारी फूंक--फूंक के
कदम रख रहे हैं.हांलांकि फिलवक्त जिले में ना तो एसपी पंकज कुमार सिन्हा
मौजूद हैं और ना ही एसडीपीओ प्रेमसागर.सारी कमान अभी सूर्यकांत चौबे,इन्स्पेक्टर साहब के
जिम्मे है.इनका कहना है की परिजन के बयान पर मामला दर्ज होगा और आगे की
जांच में जो कुछ निकलेगा,उसी आधार पर कार्रवाई होगी.
इस
मामले ने पुरे इलाके को हिलाकर रख दिया है.चूँकि मामला ना केवल पूर्व
सांसद के आवास से जुड़ा है बल्कि आरोप भी उनके बॉडी गार्डों पर ही लग रहा
है,ऐसे में निष्पक्ष जांच पर संसय बरकरार है.आगे देखना दिलचस्प होगा पुलिस
की जांच कितनी पाक--साफ़ और मृतक को इन्साफ दिलाने लायक होती है.यूँ
घटनास्थल की परिस्थिति आत्महत्या की कम और हत्या की ओर ज्यादा इशारे कर रही
है.
मई 15, 2014
स्वप्न या हकीकत
एक अजीब सी कहानी है. एक लड़का है अपने माता-पिता का दुलारा है. बचपन कि दिवार लांघ कर वो जब जवान होता है तब अपने माता पिता के सपनों कि रथ पर सवार होकर निकल पड़ता है अपनी मंजिल कि तरफ़. बहुत खुश है वो है वो. बहुत तेज चलता है पर सभल के चलता है और आपने रास्ते से भटकता नहीं है.
अब मंजिल बहुत करीब दिखती है. दिल में जीत कि फुहार उठतीं है पर अचानक रथ का पहिया टूट जाता है. लड़का जमीन पर गिरता है उसका सर फुट जात है उसका एक पैर टूट जाता है. मंजिल सामने है पर अब वो चल नहीं सकता. रेंग रहा है पर ज्यादा रेंग नहीं सकता, वो चिल्लाता है रोता है पर कुछ कर नहीं पाता है वो. खुद के ठीक होने का अब इँतजार भी नहीं कर सकता। क्योंकि जिस रथ पर वो सवार थ उसे बनाने के लिये उसके मात पिता अपनी साडी कमाई खर्च कर चुके थे, सारे जमीने बेच चुके थे.
अब लड़के को मंजिल दुर होता प्रतीत होता है. दूर होते होते मंजिल गायब हो जाता है. लड़के को अपने माता पिता कि बाते याद आती है कि '' अब लौटना तो जीत कर लौटना, अपनी मंजिल को पा कर लौटना।''

कुंदन मिश्रा
पिता ७ अशोक कुमार मिश्रा
संत नगर - सहरसा
अप्रैल 23, 2014
नरेंद्र मोदी कल सहरसा में
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
नरेंद्र मोदी गुरुवार को कड़ी
सुरक्षा व्यवस्था के बीच स्थानीय पटेल मैदान में चुनावी सभा को संबोधित
करेंगे। उनकी सुरक्षा के कड़ी इंतजाम किए जा रहे हैं। सहरसा में ३० अप्रैल
को चुनाव होनी है. कल तक जो लोग मोदी को टीवी पर देखा करते थे वह चाय बेचने
वाला देश का भावी प्रधानमंत्री सहरसा के पटेल मैदान के मंच से लोगो को
सम्बोधित करेंगे। गॉव घर से लोगों का आना शुरू हो चूका है मोदी के दूर दराज
का समर्थक अपने रिश्तेदार के यंहा आकर डेरा जमा दिए है. मोदी के मंच पर
भीड़ न लगे इसके चलते दो मंच का निर्माण किया जा रहा है एक मंच से मोदी लोगो
को सम्बोधित करेंगे तो दूसरे मंच पर प्रदेश स्तर के नेता, विधायक व
सांसद होंगे। सुरक्षा को लेकर आइबी की टीम और गुजरात
से भी डीआइजी एवं डीएसपी रैंक के अधिकारी सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने
पहुंचे चुके हैं. सुरक्षा के ख़ाश इंतजाम को लेकर डी एरिया को मेटल
डिडेक्टर से जाँच की जा चुकी है. नरेंद्र मोदी की सभा को सफल बनाने के लिए
भाजपा के कार्यकर्ताओ और विधायकों ने पूरी ताकत लगा दी है। शहर से लेकर
सुदूर गांव व कस्बों लोगो को मोदी के सभा में आने को आमंत्रित कर रहे है.
अप्रैल 03, 2014
किसी तरह रात का खाना बन जाए
रिपोर्ट सहरसा टाईम्स: भविष्य संवारना किसे अच्छा नहीं लगता,सपने देखना किसे अच्छा नहीं लगता.लेकिन जहां गरीबी और मुफलिसी में
जिदगी जार-जार हो और जहां एक जून रोटी का जुगाड़ मील का पत्थर साबित हो
रहा हो वहाँ सपने नहीं पलते,वहाँ जिन्दगी बस घिसटती,रिसती--सिलती यूँ ही कब
शुरू और कब खत्म हो जाती है,कुछ पता ही नहीं चलता.सहरसा का आलम कुछ ऐसा है
की यमराज को भी रोना आ जाए.सुदूर ग्रामीण इलाके की बात तो छोड़िये जिला
मुख्यालय में मासूम नौनिहाल थोक में अपना भविष्य संवारने की जगह सड़कों के किनारे, ऑफिस--ऑफिस या फिर जिधर पेड़ों से भरे इलाके हैं उधर पत्ते और जलावन चुनने में सुबह
से शाम कर देते हैं.ये वे तंगहाली की कोख से जन्मे बच्चे हैं जो पत्ते और
जलावन चुनकर ले जाते हैं तो घर का चूल्हा जलता है फिर सडा--गला कुछ पकता है
और फिर कुलबुलाते पेट की ज्वाला शांत होती है.सरकारी इंतजामात से महरूम
घरों में अभिशाप की तरह पैदा हुए इन बच्चों को
क्या पता की इनके घर के बड़ो और खुद उनपर सियासतदान सियासत की बड़ी--बड़ी
सीढियां चढ़ते हैं.एक तरफ गरीबों और बच्चों के नाम प़र योजनाओं की आई सुनामी
थमने का नाम नहीं ले रही है तो दूसरी तरफ सरकारी खजाने के मुंह इनके लिए
यूँ खुले हैं की कभी बन्द होने का नाम ही नहीं लेते,फिर भी ये गरीब घर के
बच्चे दोजख की बेजा जिन्दगी जीने को विवश हैं.सरकार के सारे नारे--दावे "सब पढ़े--सब बढे" और "मुनिया बेटी पढ़ती जाए" सहरसा में पूरी तरह से दफ़न हो
रहे हैं.
सुशासन बाबू आँखों प़र चढ़ा सरकारी चस्मा उतारिये और इन तस्वीरों को देखिये.हमें पता है की आप संवेदनशील मुख्यमंत्री हैं.आपका कलेजा इन तस्वीरों को देखकर जरुर फट पड़ेगा.अगर ये तस्वीरें आपको दहला--रुला नहीं सकीं तो यकीन मानिए आगे हम कोसी तटबंध के भीतर और सुदूर ग्रामीण इलाके की तस्वीरें लेकर आयेंगे जो सुशासन के सारे ढोल--ताशे के चिथड़े तो उड़ाएंगी ही,साथ ही सुशासन या कुशासन या फिर ठगासन सभी की सारी पोल--पट्टी भी खोलकर रख देंगी.जागिये नीतीश बाबू जागिये.इतना आसान नहीं है विकसित बिहार के सपने को सच कर दिखाना.
सुशासन बाबू आँखों प़र चढ़ा सरकारी चस्मा उतारिये और इन तस्वीरों को देखिये.हमें पता है की आप संवेदनशील मुख्यमंत्री हैं.आपका कलेजा इन तस्वीरों को देखकर जरुर फट पड़ेगा.अगर ये तस्वीरें आपको दहला--रुला नहीं सकीं तो यकीन मानिए आगे हम कोसी तटबंध के भीतर और सुदूर ग्रामीण इलाके की तस्वीरें लेकर आयेंगे जो सुशासन के सारे ढोल--ताशे के चिथड़े तो उड़ाएंगी ही,साथ ही सुशासन या कुशासन या फिर ठगासन सभी की सारी पोल--पट्टी भी खोलकर रख देंगी.जागिये नीतीश बाबू जागिये.इतना आसान नहीं है विकसित बिहार के सपने को सच कर दिखाना.
फ़रवरी 18, 2014
नये थानाध्यक्ष की पदस्थापन सूची
चुनाव से पहले दस
थाना व चार ओपी में नये थानाध्यक्ष की पदस्थापना।
पदस्थापित अधिकारियों की सूची
नाम - कहां थे- कहां गये
1. सूर्यकांत चौबे - इंस्पेक्टर- थानाध्यक्ष, सदर
2. नन्हकू राम - महिषी - थानाध्यक्ष, बिहरा
3. अनुज कुमार सिंह - पुलिस केन्द्र- थानाध्यक्ष बनगांव
4. रामइकबाल यादव - पुलिस केन्द्र- थानाध्यक्ष, जलई
5. केबी सिंह- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, सौरबाजार
6. जगनिवास सिंह- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, सोनवर्षा राज
7. आरके शरण- इंस्पेक्टर, पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, सिमरीबख्तियापुर
8. मनीष कुमार रजक- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, बसनही
9. वकील यादव- पुलिस केन्द्र- थानाध्यक्ष, सहरसा
10. आरती सिंह- पुलिस केन्द्र- थानाध्यक्ष, महिला थाना
11. मो. इजहार आलम- पुलिस केन्द्र- थानाध्यक्ष, पतरघट ओपी
12. सुमन कुमार- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, डरहार ओपी
13. जीतेन्द्र चौधरी- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, काशनगर ओपी
14. जीतेन्द्र सहनी- पुलिस केन्द्र - थानाध्यक्ष, बनमा ईटहरी ओपी
जनवरी 31, 2014
संविदा कर्मी को नीतिशिया लाठी का तौफा
एक मजबूर संविदा कर्मी द्वारा भेजा गया खबर.… संविदा पर काम करे कंप्यूटर
ऑपरेटर को सरकारी नौकरी तो नहीं लेकिन सरकारी लाठी नसीब हुआ. पटना कि घटना
से सभी संविदा पर काम कर रहे डाटाइंट्री ऑपरेटर अपने भविष्य को लेकर काफी
चिंतित है. दुःख की बात है कि बेल्ट्रॉन के 25 डाटाइंट्री ऑपेरटरों को
नौकरी से निकाल दिया गया. जिन अन्य ऑपरेटरों ने सरकार के इस फैसले के
खिलाफ आवाज़ उठाई, उन्हें मारा गया, पीटा गया, उन पर अपराधिक मुक़दमे दर्ज
किये गए, और उन्हें जेल में ठूंस दिया गया. सवाल यह है कि एक तरफ किसी
विभाग में कई वर्षो से कार्यरत ओपरेटर को भारी संख्या में निकाला जाता है
और दूसरी तरफ पैनल बनाकर सरकारी महकमा डाटाइंट्री ऑपरेटर को रिज़र्व रखता
है. ऐसी बर्बरता तो शायद लाभ घाटे के गणित पर चलने वाली कोई निजी कम्पनी भी
न करता है.
कंप्यूटर ऑपेरटरों ने अपने भविष्य को सुरक्षित करने की
सरकार से गुज़ारिश की, बात नहीं बनी तो न्यायालय के शरण में गए. सरकार
इन्हें राहत देने के बजाय इनके हिम्मत को तोड़ने के लिए, इनका फन कुचलने के
तरीके अपनाये। पांच-छह साल काम करने के बाद अब फिर से पढाई करना, प्रतियोगी
परीक्षाओं की तैयारी करना- क्या ये व्यावहारिक है? इसी कई जगहों पर कार्य
कर रहे आई टी असिस्टेंट्स को अचानक हटा दिया गया, क्योंकि सरकार के पास अब
उनके लिए काम नहीं है. अब सरकार के पास काम नहीं है.
नितीश बाबू सूबे
का सभी कार्यालय संविदा कर्मियों के बदोलत चल रहा है. ८० प्रतिशत कार्यालय
संविदा कर्मी से चलता है यदि इनके साथ आपका यह वर्ताव रहा तो एक और
क्रांति होगा जिसे आप सहन नहीं कर पाएंगे।
दोस्तों सभी कंप्यूटर ऑपरेटर से अपील है सब एक होकर यदि नहीं रहेंगे तो इसका बहुत बुरा परिणाम होना वाला है जिसका प्रभाव सिर्फ हमें नहीं बल्कि हमारे पारिवारिक जीवन पर भी असर पड़ेगा. कई दोस्तों के दिल में बेलट्रॉन और एक्सक्यूटिव असिस्टंट को लेकर अंतर बना रहता है. भाई ये सब सरकारी कूट नीति है जिसके कारण हम एक दूसरे को नीचे दिखाने कि कोशिश करते है और इसका मजा नियमित कर्मी लेता रहता है. अरे भाई सब तो आखिर ओपरेटर है है न. दोस्तों अब समय आपस में एक दूसरे को नीचे दिखाने का नहीं है एक साथ होकर लड़ने का है आओ एक साथ लड़े. नहीं तो उम्र के साथ अपनी लाइफ़ भी बल्ले बल्ले।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
जनवरी 03, 2014
राजनेताओं के अमर्यादित बयानबाजी से लोकतंत्र को बड़ा खतरा
मुकेश कुमार सिंह की कलम से----------
देश के अंदर कई बड़े मुद्दे और जलते हुए सवाल हैं जिनपर लगातार बहस और
विमर्श किये जाने की जरुरत है।लेकिन आज हम देश के विभिन्य सूबे से लेकर
राष्ट्रीय राजनीति में राजनेताओं के द्वारा की जा रही अमर्यादित बयानबाजी
को लेकर चर्चा के लिए विवश हुए हैं।आज के राजनीतिक परिवेश में यह चिंता का
विषय बन चुका है कि राजनीति में मर्यादा के लिए कोई जगह शेष भी है अथवा
नहीं।यूँ हम डंके की चोट पर कहते हैं कि आजादी के कुछ समय बाद से ही यह
परिलक्षित होने लगे थे कि भारतीय राजनीति में मर्यादा को संजोने के लिए कोई
अतिरिक्त व्यवस्था नहीं की गयी है।आज परिणाम सामने है कि स्थिति ना केवल
विस्फोटक बल्कि भयावह शक्ल अख्तियार कर चुकी है।
लोकतांत्रिक ढाँचे में भारत एक अजूबे देश की श्रेणी में है जहां शासन के
शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए कोई वैधानिक योग्यता और मापदंड तय नहीं
हैं।इतने बड़े देश के लिए जहां उत्कृष्ट राजनीतिक व्यवस्था के इंतजाम होने
चाहिए वहाँ छिन्न--भिन्न और टूटी--बिखड़ी परिपाटी के अस्थिपंजर राजनीति के
परचम लहरा रहे हैं।हम शब्दजाल में ना तो खुद और ना ही आपको उलझाने की मंशा
रखते हैं,इसलिए मौजूं सवाल पर आ रहे हैं।देश आज राजनीतिक संक्रमण के दौर से
गुजर रहा है।विभिन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के नेता
एक दूसरे पर अमर्यादित शब्दों के विष वाण छोड़ रहे हैं।राजनेताओं के ऐसे
उत्तेजक और बहुघाती बयान आ रहे हैं जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था के लिए कहीं
से भी शुभ संकेत देने वाले नहीं कहे जा सकते।


नेताओं के अमर्यादित बयानबाजी के सन्दर्भ में निर्वाचन
आयोग की भूमिका अत्यंत लाचारी भरी और सीमित नजर आती है।निर्वाचन आयोग ने
हाल के दिनों में कुछ नेताओं के बयानों और टिप्पणियों पर संज्ञान लिया
है।खासकर के राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बयानबाजी को लेकर निर्वाचन
आयोग गम्भीर हुआ है।लेकिन आयोग के हाथ बंधे हुए हैं।निर्वाचन आयोग के पास
इतनी संवैधानिक ताकत नहीं है कि वह नेताओं के बड़बोलेपन पर कोई कठोर कारवाई
का रास्ता तैयार कर सके।आयोग ऐसे बयान बहादूरों के मामले में अधिक से अधिक
अपनी असहमति जताने,चेतावनी देने और फटकार लगाने तक ही सीमित है।

राजनेता
देश की दिशा तय करने वालों में अगर्णी भूमिका निभाते हैं।उनके
क्रिया--कलापों का जनता पर सीधा और व्यापक असर पड़ता है।ऐसे में नेताओं को
पूर्वागढ़ से मुक्त और दूरदर्शी होने के साथ--साथ व्यक्तिगत और पार्टी हित
की जगह देश हित का ख्याल रखना चाहिए। धर्म,सम्प्रदाय और जाति को बयानों में
रखकर देश को ये नेतागण आखिर कबतक जलालत और फजीहत में झोंकते रहेंगे।आजादी
के लगभग सात दशक के हम करीब हैं।लेकिन हमें जिस तरह से समृद्ध,संपन्न और
एकीकृत होना चाहिए,वहाँ हम कतई नहीं दिख रहे हैं।विचारों का मतभेद और उसका
स्खलन विकास का चट्टानी अवरोधक है।अब बदलाव की जरुरत है।गाँव से लेकर देश
स्तर के शीर्षस्थ नेताओं को अपने तौर--तरीके बदलकर देश निर्माण की बात ना
केवल सोचनी और गुननी होगी बल्कि नयी ऊर्जा के साथ उन्हें सामने आना होगा।
दर्द,चुभन,सीलन,टीस और सिसकियाँ भरे इस देश को जलते रहने देना,कहीं से भी
और कतई जायज नहीं है।वजूद तलाशते इस देश के राजनेताओं जागो और देश निर्माण
की नयी पटकथा लिखो।
नोट ::--इस आलेख में जो भी कार्टून इमेज लगे है वह नेट के माध्यम से लिया गया है..
दिसंबर 08, 2013
पुस्तकालय के लिए एकदिवसीय भूख हड़ताल
प्रमंडलीय पुस्तकालय में शीध्र सुधार के लिए NSUI के बैनरतले एकदिवसीय
सांकेतिक भूख हरताल किया गया. कार्यक्रम कि शुरुआत शांति व अहिंषा के
अग्रदूत गांधी विचार के साधक रहे नेल्सन मंडेला के प्रति श्रदा सुमन अर्पित
कर कार्यक्रम कि शुरुआत कि गई। पुस्तकालय के जर्जर अवस्था में शीध्र
सुधार, पुस्तकालय के जेनरेटर वापसी कि माँग के साथ कई अन्य समस्याओं को
लेकर NSUI के कार्यकर्ताओं ने सहरसा सदर के अनुमडल पदाधिकारी को आवेदन देकर
जानकारी दी. कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए प्रदेश सचिव मनीष कुमार ने
कहा कि , जनजागरण व छात्र जागरण कर पुस्तकालय में सदस्यों कि संख्या को
बढ़ाया जायेगा। इसके साथ ही NSUI जिला अध्यक्ष सुदीप कुमार सुमन ने कहा कि
प्रशासनिक उदासीनता के कारण पुस्तकालय जर्जर अवस्था में है वही बुद्धिजीवि
व छात्र वर्ग के शिथिलता भी इसके लिए जिम्मेवार है. वर्ष २००५ में
पुस्तकालय को पाँच लाख कि राशि आवंटन हुआ था. जिस राशि से खरीदी गई जेनरेटर
आज प्रमंडलीय पुस्तकालय में उपलब्ध नहीं है जिसकी जाँच हो. पुस्तकालय में
विगत पाँच वर्षो से नियमीत दैनिक अख़बारों का आवंटन बंद है. इस पर NSUI
कमिटी पुस्तकालय कि स्थिति सुदृठ होने तक १३५ रुपया प्रतिमाह देने का
संकल्प लिया है.
दिसंबर 04, 2013
रील पुलिस को तालियाँ और रीयल पुलिस को गालियाँ
मुकेश कुमार सिंह की कलम से-------- आज हम एक गंभीर विषय पर ना केवल चर्चा हैं बल्कि देश स्तर पर इस
विषय पर तटस्थ बहस और विमर्श हो इसकी अपील भी कर रहे हैं। देश के संविधान
क्रियान्वयन के समय से ही एक प्रश्न आजतक बेउत्तर मौजूं है.आखिर क्या है
हमारी पुलिस की विफलता का राज?आखिर क्या वजह है की तमाम भगीरथ प्रयासों और
मशक्कत के बाद भी हमारी पुलिस जनता के बीच आजतक अपनी वह छवि नहीं बना पायी
है जो विदेशों में वहाँ की पुलिस ने बना रखी है।हमारी समझ से इस प्रश्न का
उत्तर बहुत ही साधारण है और वजह भी कोई खास नहीं है।व्यापक परिदृश्य में
आंकड़ों पर गौर करें तो "हमारे देश के लोग कानून से नहीं बल्कि पुलिस से
डरते हैं"जबकि इसके ठीक उलट विदेशों में लोग अपने देश के कानून को सम्मान
देते हैं और पुलिस को सहयोग।वहाँ की जनता अपनी पुलिस से नहीं बल्कि देश के
कानून से डरती है।जाहिर तौर पर यही कारण है की विदेशों में पुलिस कामयाब और
सम्मानित है लेकिन अपने देश में पुलिस ठीक इसके विपरीत नजर आती है।भारतीय
परिवेश में आज "खाकी"का नाम जुवां पर आते ही एक अजीबो--गरीब छवि आँखों के
सामने आ जाती है। आम धारणा यह है की खाकी वर्दी में जो व्यक्ति है वह
कठोर,निर्दयी और भ्रष्ट हैवान है और जिसका भय भारतीय जनता के बीच वर्षों से
बना हुआ है।हांलांकि मुट्ठी भर ऐसे लोग जरुर हैं जो खाकी पहने व्यक्तियों
को समझते हैं। उन्हें पता है उनकी परेशानियां,मजबूरियां,आवश्यकताएं और
अपेक्षाएं।
यहाँ गौरतलब है की उन खाकी वर्दीधारियों की ऐसी छवि बनायी किसने
और लोग यह क्यों नहीं समझते हैं की उनका भी एक परिवार है।उनकी भी एक
व्यक्तिगत जिन्दगी है।उन्हें भी समाज से ना केवल अपेक्षा है बल्कि उनके
सीने में भी धड़कता हुआ एक दिल है।क्या लोगों ने कभी यह सोचने की जहमत उठायी
है की वह अपने परिवार को कितना समय दे पाते हैं।अगर उनकी तैनाती दूर--दराज
के इलाके में है तो वे कितने अरसे बाद अपने स्वजन--परिजनों की एक झलक देख
पाते हैं?दिन हो या रात अफसरों के तेवर और अपराधियों की चुनौतियों के बीच
वे अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन आखिर कैसे बरकरार रख पाते हैं?ज़रा समझिये
की हेलमेट पहनने में आपकी सुरक्षा है लेकिन उसे पहनाने की जिम्मेदारी
पुलिस की?गलत तरीके से वाहन चलाने पर दुर्घटनाग्रस्त आप होते हैं लेकिन
आपको अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी पुलिस की?अपने समाज पर अत्याचार होता
देख आप अपने घर में दुबक जाते हैं लेकिन उस अत्याचारी से बचाने की
जिम्मेदारी पुलिस की?आँखों के सामने कत्ल हुआ किसी का लेकिन गवाह ढूंढने की
जिम्मेदारी पुलिस की?ऐसी ही ना जाने कितनी समस्याएं हैं जिसके जिम्मेवार
हम स्वयं हैं लेकिन सारी जिम्मेदारी पुलिस की।यहाँ एक विचित्र बात पर
प्रकाश डालना आवश्यक है की आम नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं
लेकिन जब अपने सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों की बात आती है वे उसकी
उपेक्षा कर अनभिज्ञता प्रकट कर देते हैं।अगर सामान्य नागरिक की किंचित
जागरूकता और सहयोग हमारी पुलिस को मिल जाए तो हम डंके की चोट पर कहते हैं
की हमारी पुलिस कितनी सक्रिय हो सकती है,हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते?

ज़रा आप तुलना करिए नागरिक सुरक्षा बल और सेना के बीच संसाधन और
सुविधाओं की तो स्वतः ही आपकी सहानुभूति नागरिक सुरक्षा बल के प्रति हो
जायेगी।सैनिक शहीद हो तो मान--सम्मान और आर्थिक अनुदान।लेकिन एक कांस्टेबल
अवकाश प्राप्त हो तो अपने ही पेंशन के लिए कार्यालयों के अनगिनत
चक्कर,अधिकारियों के समक्ष एड़ियों की रगड़ और खतो--किताबत,तब जाकर कहीं
मिलता है मामूली सा पेंशन।उस मामूली पेंशन से उसके परिवार की तो
छोड़िये,उसके खुद का गुजारा हो पाना भी मुश्किल है।सेना का जवान गर्व से
कहता है की मैं "फौजी?लेकिन एक कांस्टेबल के दिल से पूछिये तो वह बताएगा
की कितनी तकलीफों से सनी होती है पुलिस की नौकरी।उसका दिल रोता है लेकिन
उसे अपनी जुबान बंद रखनी पड़ती है।जानते हैं क्यों?वह इसलिए की उसे ही सुननी
है हमारी और आपकी फ़रियाद और उसे ही करनी है हमारी और आपकी सुरक्षा।
चूँकि पुलिस पर तरह--तरह के आरोप लगते रहते हैं इसलिए आज हम इस विषय
को गंभीरता से उठाने का प्रयास कर रहे हैं।भारत जैसे विशाल देश में आजादी
के बाद धर्मों को सम्मानपूर्वक देखने का सपना हमारे राष्ट्र नायकों ने देखा
था।उन्होनें कल्पना की थी की उनके बाद की पीढियां उसका अक्षरशः अमल
करेगी।लेकिन बड़े खेद की बात है की इस धर्म निरपेक्ष देश में आज सभी
राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए जनता को धर्म,जाति,वर्ण,लिंग
इत्यादि के प्रति उत्प्रेरित कर के देश को ना जाने कितने भागों में बाँट
रही है।लेकिन इस भयावह स्थिति के बीच एक ऐसा कौम है जो सभी भेद--भाव को
भूलकर न केवल एकजुट होकर बल्कि धर्मनिरपेक्ष होकर रात--दिन देश की आंतरिक
सुरक्षा कर रहा है।बाबजूद इसके विडंबना देखिये की उनकी इस ईमानदारी पर आजतक
किसी का ध्यान नहीं गया।क्या हमने कभी सोचा है की भारतीय पुलिस ने
स्वतंत्रता से लेकर आजतक कभी भी अपना कार्य धर्म इत्यादि के आधार पर
किया?पुलिस ने कभी यह कहा की आप हिन्दू हैं तो आपकी प्राथमिकी दर्ज की
जायेगी?क्या आप मुसलमान हैं,तभी आपकी सुरक्षा की जायेगी?सिख होकर दुर्घटना
के शिकार हुए व्यक्ति ही ईलाज के लिए अस्पताल पहुंचाए जायेंगे?इसाई की लाश
अगर लावारिश मिले तो उसे दफनाया जाएगा?निम्न और पिछड़ी जातियों को थाने में
आने की मनाही है?क्या उच्च जाति के लोगों के लिए थाने में कालीन बिछी
है?
बड़ी अहम् बात है की जहां हमारे देश में धर्म और जाति के नाम पर तरह--तरह के खेल हो रहे हैं वहीँ पुलिस पुरे देश देश में धर्म निरपेक्ष होकर अपराधियों से मुकाबला कर रही है।यही नहीं हमारी समझ से पुलिस जनता को बिना किसी भेदभाव के सुरक्षा देने का हर संभव प्रयास भी कर रही है।अब इस पुरे प्रकरण में पुलिस कितना कामयाब है,यह एक अलग बात है।जहां तक हमारी समझ जाती है उसके मुताबिक़ वर्दी का कोई मजहब नहीं होता और पुलिस किसी धर्म विशेष के लिए कतई काम नहीं करती है।पुलिस की गोली सिर्फ अपराधियों पर चलती है और चलने से पहले यह नहीं पूछती है की आप किस धर्म के हैं।कई ऐसे उदाहरण हैं जब अपराध में लिप्त कई धर्म गुरुओं को पुलिस ने दबोचा है।पद,रसूखवालों से लेकर बड़े ओहदेदारों और राजनेताओं को भी पुलिस ने बेड़ियाँ पहनाई है।हमारी पुलिस कौमी एकता की प्रतीक है। लेकिन इन तमाम सच के बीच अनगिनत वाकये इस बात के गवाह हैं की पुलिस पर से आमजन का भरोसा आज एक तरह से कहें तो तो उठ सा गया है।पुलिस को लेकर ना तो कोई अच्छा सोच रहे हैं,ना अच्छा बोल रहे हैं और ना अच्छा लिख रहे हैं।हमने तक़रीबन "विवादास्पद"बनी पुलिस पर समीचीन और तटस्थ पड़ताल की एक कोशिश की है। वर्तमान परिवेश में फिल्म आज भी जनता के मनोरंजन का मुख्य साधन है।खासकर ऐसी फ़िल्में जिसमें एक्शन,मारधाड़ और रोमांच हो तो उसका जादू सर चढ़कर बोलता है। यूँ हिंदी फिल्मों का फार्मूला कमोबेस एक ही होता है जिसमें हीरो--हिरोईन,नाच--गाना,विलेन और अंत में क्लाईमेक्स।इसी क्रम में पुलिस का प्रवेश होता है,फिर भाग--दौड़,गोला--बारूद और विलेन की मौत या फिर उसकी नाटकीय ढंग से गिरफ्तारी होती है।यहाँ पर पुलिस की कार्यशैली और उसके जांबाज अंदाज के लिए दर्शकों की भरपूर तालियाँ मिलती है।इतिहास गवाह है की आजतक लगभग सभी नायकों चाहे वह अमिताभ बच्चन,धर्मेन्द्र,संजीव कुमार,दिलीप कुमार,शशि कपूर,ओमपुरी,संजय दत्त, शाहरुख खान,सलमान खान,सन्नी देओल,अजय देवगन,सुनील सेट्ठी,अक्षय कुमार और ना जाने कितने कलाकारों ने पुलिस के रूप में पोजेटिव भूमिका निभायी है।दर्शकों ने इन फ़िल्मी पुलिसवालों के लिए ना केवल भरपूर तालियाँ बजाई है बल्कि जमकर उनकी तारीफ़ भी की है।लेकिन ये रील लाईफ की पुलिस है।रीयल लाईफ की पुलिस का अवलोकन करें तो हमारी पुलिस बिना बेहतर संसाधन के वास्तव में सामाजिक विलेनों से हरपल लड़ रही है।यहाँ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की वह काफी हद तक अपनी सीमाओं में बंधे होने के बाद भी कामयाब है।फिर भी हमें केवल उनकी नाकामियाँ ही नजर आती हैं और नतीजतन उन्हें गालियाँ दी जाती है। अगर हमारी पुलिस सच में काहिल और निकम्मी भर है तो आज भारत के सभी कारागारों में अपराधी खचाखच कैसे भरे हैं?क्या वे अपने गुनाह स्वयं कबूल करके जेल गए हैं/अगर हमारी पुलिस घर बैठे सिर्फ वेतन ले रही है तो फिर भारत के सभी छोटे--बड़े न्यायालयों में करोड़ों अपराधिक मुकदमें क्या यूँ ही चल रहे हैं?
नागरिक सुरक्षा बल और सैन्य बल के संसाधन और जिम्मेवारियों की अगर तुलना की जाए तो चौंकाने वाले सच सामने आते हैं।बड़ा सवाल यह है की क्या नागरिक सुरक्षा बल को सैनिकों जैसी सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है? क्या पुलिस को भी सेना की भांति सम्मान की जरुरत नहीं है?क्या पुलिस को सैनिकों की तरह अवकाश की दरकार नहीं है?यह बिल्कुल आईने की तरह साफ़ है की अगर पुलिस को हम ऐसी सुविधाएं मुहैय्या करा दें तो हमारा हर कांस्टेबल ना केवल अजय देवगन और हर दारोगा अमिताभ बच्चन होगा बल्कि यथार्थ की पुलिस बिल्कुल फिल्मों जैसी होगी और फिल्म की तरह The End हमेशा सुखदायी होगा।
आखिर में आपसे एक बात पूछने की कोशिश कर रहा हूँ।आप ने एक डॉक्टर,एक शिक्षक,एक अधिकारी से लेकर रसूखदारों और नेताओं तक को जरुर कहा होगा लेकिन क्या आपने कभी एक पुलिसवाले से कभी "थैंक यू "कहा है? ईमानदारी से कभी उन्हें भी "थैंक यू"कहकर देखिये।मेरा दावा है की उनकी आँखे ना केवल भर आएँगी बल्कि उनका कलेजा मुंह को आ जाएगा।
बड़ी अहम् बात है की जहां हमारे देश में धर्म और जाति के नाम पर तरह--तरह के खेल हो रहे हैं वहीँ पुलिस पुरे देश देश में धर्म निरपेक्ष होकर अपराधियों से मुकाबला कर रही है।यही नहीं हमारी समझ से पुलिस जनता को बिना किसी भेदभाव के सुरक्षा देने का हर संभव प्रयास भी कर रही है।अब इस पुरे प्रकरण में पुलिस कितना कामयाब है,यह एक अलग बात है।जहां तक हमारी समझ जाती है उसके मुताबिक़ वर्दी का कोई मजहब नहीं होता और पुलिस किसी धर्म विशेष के लिए कतई काम नहीं करती है।पुलिस की गोली सिर्फ अपराधियों पर चलती है और चलने से पहले यह नहीं पूछती है की आप किस धर्म के हैं।कई ऐसे उदाहरण हैं जब अपराध में लिप्त कई धर्म गुरुओं को पुलिस ने दबोचा है।पद,रसूखवालों से लेकर बड़े ओहदेदारों और राजनेताओं को भी पुलिस ने बेड़ियाँ पहनाई है।हमारी पुलिस कौमी एकता की प्रतीक है। लेकिन इन तमाम सच के बीच अनगिनत वाकये इस बात के गवाह हैं की पुलिस पर से आमजन का भरोसा आज एक तरह से कहें तो तो उठ सा गया है।पुलिस को लेकर ना तो कोई अच्छा सोच रहे हैं,ना अच्छा बोल रहे हैं और ना अच्छा लिख रहे हैं।हमने तक़रीबन "विवादास्पद"बनी पुलिस पर समीचीन और तटस्थ पड़ताल की एक कोशिश की है। वर्तमान परिवेश में फिल्म आज भी जनता के मनोरंजन का मुख्य साधन है।खासकर ऐसी फ़िल्में जिसमें एक्शन,मारधाड़ और रोमांच हो तो उसका जादू सर चढ़कर बोलता है। यूँ हिंदी फिल्मों का फार्मूला कमोबेस एक ही होता है जिसमें हीरो--हिरोईन,नाच--गाना,विलेन और अंत में क्लाईमेक्स।इसी क्रम में पुलिस का प्रवेश होता है,फिर भाग--दौड़,गोला--बारूद और विलेन की मौत या फिर उसकी नाटकीय ढंग से गिरफ्तारी होती है।यहाँ पर पुलिस की कार्यशैली और उसके जांबाज अंदाज के लिए दर्शकों की भरपूर तालियाँ मिलती है।इतिहास गवाह है की आजतक लगभग सभी नायकों चाहे वह अमिताभ बच्चन,धर्मेन्द्र,संजीव कुमार,दिलीप कुमार,शशि कपूर,ओमपुरी,संजय दत्त, शाहरुख खान,सलमान खान,सन्नी देओल,अजय देवगन,सुनील सेट्ठी,अक्षय कुमार और ना जाने कितने कलाकारों ने पुलिस के रूप में पोजेटिव भूमिका निभायी है।दर्शकों ने इन फ़िल्मी पुलिसवालों के लिए ना केवल भरपूर तालियाँ बजाई है बल्कि जमकर उनकी तारीफ़ भी की है।लेकिन ये रील लाईफ की पुलिस है।रीयल लाईफ की पुलिस का अवलोकन करें तो हमारी पुलिस बिना बेहतर संसाधन के वास्तव में सामाजिक विलेनों से हरपल लड़ रही है।यहाँ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की वह काफी हद तक अपनी सीमाओं में बंधे होने के बाद भी कामयाब है।फिर भी हमें केवल उनकी नाकामियाँ ही नजर आती हैं और नतीजतन उन्हें गालियाँ दी जाती है। अगर हमारी पुलिस सच में काहिल और निकम्मी भर है तो आज भारत के सभी कारागारों में अपराधी खचाखच कैसे भरे हैं?क्या वे अपने गुनाह स्वयं कबूल करके जेल गए हैं/अगर हमारी पुलिस घर बैठे सिर्फ वेतन ले रही है तो फिर भारत के सभी छोटे--बड़े न्यायालयों में करोड़ों अपराधिक मुकदमें क्या यूँ ही चल रहे हैं?
नागरिक सुरक्षा बल और सैन्य बल के संसाधन और जिम्मेवारियों की अगर तुलना की जाए तो चौंकाने वाले सच सामने आते हैं।बड़ा सवाल यह है की क्या नागरिक सुरक्षा बल को सैनिकों जैसी सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है? क्या पुलिस को भी सेना की भांति सम्मान की जरुरत नहीं है?क्या पुलिस को सैनिकों की तरह अवकाश की दरकार नहीं है?यह बिल्कुल आईने की तरह साफ़ है की अगर पुलिस को हम ऐसी सुविधाएं मुहैय्या करा दें तो हमारा हर कांस्टेबल ना केवल अजय देवगन और हर दारोगा अमिताभ बच्चन होगा बल्कि यथार्थ की पुलिस बिल्कुल फिल्मों जैसी होगी और फिल्म की तरह The End हमेशा सुखदायी होगा।
आखिर में आपसे एक बात पूछने की कोशिश कर रहा हूँ।आप ने एक डॉक्टर,एक शिक्षक,एक अधिकारी से लेकर रसूखदारों और नेताओं तक को जरुर कहा होगा लेकिन क्या आपने कभी एक पुलिसवाले से कभी "थैंक यू "कहा है? ईमानदारी से कभी उन्हें भी "थैंक यू"कहकर देखिये।मेरा दावा है की उनकी आँखे ना केवल भर आएँगी बल्कि उनका कलेजा मुंह को आ जाएगा।
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