एक अजीब सी कहानी है. एक लड़का है अपने माता-पिता का दुलारा है. बचपन कि दिवार लांघ कर वो जब जवान होता है तब अपने माता पिता के सपनों कि रथ पर सवार होकर निकल पड़ता है अपनी मंजिल कि तरफ़. बहुत खुश है वो है वो. बहुत तेज चलता है पर सभल के चलता है और आपने रास्ते से भटकता नहीं है.
अब मंजिल बहुत करीब दिखती है. दिल में जीत कि फुहार उठतीं है पर अचानक रथ का पहिया टूट जाता है. लड़का जमीन पर गिरता है उसका सर फुट जात है उसका एक पैर टूट जाता है. मंजिल सामने है पर अब वो चल नहीं सकता. रेंग रहा है पर ज्यादा रेंग नहीं सकता, वो चिल्लाता है रोता है पर कुछ कर नहीं पाता है वो. खुद के ठीक होने का अब इँतजार भी नहीं कर सकता। क्योंकि जिस रथ पर वो सवार थ उसे बनाने के लिये उसके मात पिता अपनी साडी कमाई खर्च कर चुके थे, सारे जमीने बेच चुके थे.
अब लड़के को मंजिल दुर होता प्रतीत होता है. दूर होते होते मंजिल गायब हो जाता है. लड़के को अपने माता पिता कि बाते याद आती है कि '' अब लौटना तो जीत कर लौटना, अपनी मंजिल को पा कर लौटना।''

कुंदन मिश्रा
पिता ७ अशोक कुमार मिश्रा
संत नगर - सहरसा
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