मार्च 08, 2017

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सहरसा टाईम्स की खास पेशकश


नारी तुम केवल श्रद्धा हो

नारी तुम सकल शक्ति हो
नारी तुम प्रकृति हो
नारी तुम सृष्टि हो
नारी तुम इस धरा की मूल सम्पदा हो
नारी तुम देवी हो
नारी तुम विविध संस्कार स्रोत हो
नारी तुम ये हो,नारी तुम वो हो से सदैव अलंकारित होती नारी पर मुकेश कुमार सिंह की दो टूक---
आदिकाल से ही नारी विषय गूढ़ रहस्य का संसार रहा है ।समय--समय पर संत,ऋषि,मुनि,दार्शनिक, चिंतक,विचारक और समाज सुधारक ने नारी के लिए अलग--अलग लक्ष्मण रेखा खींची और नारी को परिभाषित किया है ।आदिकाल से मध्यकाल और अभी के आधुनिक काल में नारी के लिए अनेक उपमाओं और अलंकार के प्रयोग हुए ।कुछ वर्तमान दार्शनिक,विचारक और लेखकों ने नारी को लेकर अपने समृद्ध विचार रखे ।इनलोगों के  विचारों की हमने ना केवल तटस्थ पड़ताल की बल्कि उनका गहन अध्यन भी किया है ।
इनलोगों के विचारों में वर्तमान परिपेक्ष्य में सोसल मीडिया और आधुनिक संचार माध्यमों के जरिये नारी को "वस्तु"समझने की कोशिश का खुला उपक्रम किया जा रहा है ।यह खुला सच है की आज के दौर में नारी मजबूती से घर की देहरी लांघकर शासन--प्रशासन से लेकर विविध क्षेत्रों में अपने नाम काम का पताका लहरा रही हैं ।ऐसे में उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार,शोषण और व्याभिचार को किसी संचार माध्यम से जोड़ना,मानसिक दिवालियापन है । केवल आज की नारी काम वासना की शिकार नहीं हो रहीं हैं ।विकास के नाम पर ऊँची इमारतें खड़ी करना,मजूबत सड़कें बनवा लेना,फ्लाई ओवर बनवाना,बड़े--बड़े होटल,मॉल और विविध बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान बनावा लेना,कतई वास्तविक विकास नहीं है ।भौतिकवादी विकास और संस्कारों का विकास दोनों दो चीजें हैं ।
नारी और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।काम वासना को नियंत्रित करने के लिए भारतीय संस्कृति के अंदर विवाह संस्था का उद्भव हुआ । लेकिन आज के परिपेक्ष में विवाह अपने मौलिक अर्थ से भटक चुका है ।
नारी को आदिकाल से ही शब्दों से अकूत सम्मान मिलते रहे हैं लेकिन नारी को "वस्तु" समझने का सिलसिला आदिकाल से ही है ।पुरुष,नारी को अपनी इच्छानुसार उपभोग करना चाहता है ।यह अलग बात है की इस दुःपरिस्थिति में नारी की सहमति का बेहद खास महत्व है ।सभ्यता के विकास काल से ही पुरुष,नारी को रिझाने के तरह--तरह के उपक्रम करता रहा है ।नारी के ज्ञान, उसके विवेक और उसके समृद्ध वृहत्तर क्षमताएं अमूमन गौण रही हैं ।नारी देह,पुरुषों की प्राथमिकता रही है ।नारी के देह उपभोग से पुरुष अपने को अधिक ऊर्जावान बनाकर अन्य कृत्यों को शक्ल देने का आदी रहा है ।
भारतीय इतिहास और विश्व इतिहास को खंगालें तो नारी सदैव "वस्तु" की तरह ही रही है ।यह अलग बात है की भारतीय संस्कृति में नारी को विशष्ट सम्मानों और अलंकारों से सुशोभित करके "वस्तु" समझने का छदम् खेल होता रहा है ।वैसे भारतीय इतिहास को संगठित इतिहास के तौर पर हम कतई नहीं देखते ।सार्थक मूल्यों और समृद्ध तथ्यों को समेटकर भारतीय इतिहास को किसी भारतीय इतिहासकार ने समेटा ही नहीं । खैर इसे हम तत्कालीन समय और काल की परिस्थिति से जोड़कर देखते हैं ।
हम रामायणकाल की चर्चा करते हैं ।उसमें सीता का स्वयंवर हुआ था ।नारी को जीतने के लिए धनुष उठाये गए थे और तीर छोड़े गए थे ।रावण ने सीता का अपहरण किया था ।बाली ने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी पर कब्जा कर रखा था ।महाभारत काल में युधिष्ठिर ने द्रोपदी को जुए में दांव पर लगाया था ।हद बात तो यह भी थी की द्रोपदी के पांच पति थे ।कृष्ण की सैंकड़ों पटरानियां थीं ।बाद के समय के किसी काल को देखें तो,एक राजा की कितनी ही बीबियाँ थीं ।युद्ध जीतकर पराजित राजा की पत्नी को विजेता अपने साथ ले जाता था ।अलाउद्दीन खिलजी की बुरी नजर रानी पद्मावती पर थी ।अकबर की कई पत्नियां थी ।राजाओं के हरम हुआ करते थे,जहां सुंदर नारी रखे जाते थे । राजा अपनी मर्जी से वहाँ रासलीला करते थे ।
भारतीय समाज में एक दौर आया सतीप्रथा का । पति के मरने पर पत्नी पति की चिता में कूद जाती थी ।साक्ष्य बताते हैं की उस समय बेबा को आग में कूदने के लिए उत्प्रेरित किया जाता था ।
देश की आजादी के बाद भारतीय संविधान में नारी को अलग से सम्मान देने की कोशिश की गयी ।फिर बाद के दिनों में नारी के हितार्थ कई कार्यक्रमों का दौर चला ।"आधी आबादी"संज्ञा से लवरेज नारी का जीवन अनवरत चलता रहा ।नारी उत्थान के लिए अभी भी कई तरह के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं ।बाबजूद इसके नारी "वस्तु" होने से उबर नहीं पायी है ।
पहले के समाज में नारी का उपभोग परदे के भीतर होता था ।आज के आधुनिक और वर्तमान काल में नारी घर से बाहर निकल चुकी हैं,तो उनका उपभोग बदले हुए स्वरूप से हो रहा है ।पुरुष प्रधान समाज में नारी सदैव भोग्या और वस्तु ही रही है ।वर्तमान समाज में नारी घर से बाहर निकली हैं ।बच्चियां स्कूल और कॉलेज जा रही हैं । विभिन्य क्षेत्रों में नारी का डंका बज रहा है । बाबजूद इसके पुरुष की लोलुपता बढ़ी है ।पुरुष नारी को लपकने के लिए आतुर रहता है ।
नारी को "वस्तु"समझने में पुरुष मानसिकता निश्चित रूप से अपराधी है ।लेकिन हम इस स्थिति के लिए नारी को भी गुनहगार मानते हैं । आज की नारी स्कूल--कॉलेज,किसी ऑफिस--संस्थान से लेकर जब मन्दिर जाती हैं तो उनके भड़काऊ लिबास और उनकी साज--सज्जा पुरुष को भीतर से जलाते हैं ।नारी खुद "वस्तु" बनकर घर से निकलती हैं ।नारी पहले पुरुष को मानसिक अपराध करने के लिए विवश करती हैं ।फिर थोड़ी सी आजादी के बाद,पुरुष वह कर गुजरता है जिसे हम व्याभिचार की संज्ञा देते हैं ।भारतीय परिवेश में रिश्तों का एक संसार है ।स्त्री--पुरुष के बीच कई रिश्ते होते हैं ।लेकिन आज रिश्ते अपनी गर्माहट और मर्यादा खो से चुके हैं ।रिश्तों के मेड़ धराशायी हो चुके हैं ।आलोक धनवा की एक कविता इस मौके पर बेहद फिट बैठती है "घर की बेड़ियां कितनी कमजोर थी,यह तब पता चलता है,जब कोई लड़की घर से भाग जाती है "
नारी मुतल्लिक विभिन्य तरह की गोष्ठी और कार्यक्रम नारी महत्व को स्थापित करने की जगह उनकी कमजोरी के प्रचारक और संवाहक होते हैं ।
रामायण में तुलसीदास ने लिखा है की "ढ़ोल, गंवार,शुद्र,पशु,नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी" । विद्वानों ने ताड़ना के दो अर्थ निकाले ।एक प्रताड़ित करना और दूसरा उबारना ।दोनों ही अर्थ में नारी कमतर,बेबस और लाचार प्रतीत होती है ।
आधुनिक काल नें कालजयी साहित्य पुरोधा जयशंकर प्रसाद ने नारी को बेहद सम्मान दिया और लिखा "नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास-रजत-नग पगतल में,पीयूष--स्रोत बहा करो,जीवन के सुन्दर समतल में"।वाकई यह पंक्तियाँ बेहद निर्मल और नारी के वास्तविक स्वरूप और अर्थ का परचम लहरा रही हैं ।मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा "अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में पानी" ।नारी का यह चित्रण भी दिल की गहराईयों को छूने वाला है ।इसके वृहत्तर अर्थ निकालकर नारी को स्वस्थ और निर्मल सम्मान दिया जा सकता है ।
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है ।विश्व सहित भारत में आज महलाओं को कई नए अलंकार के साथ--साथ कई तमगे भी मिलेंगे ।लेकिन ये सब बस फारस हैं ।महिला को उचित सम्मान और न्याय तभी मिलेगा जब हम हृदय में नारी महत्ता को जगह देंगे,उसे आत्मसात करेंगे और उसे अपने लहू में दौड़ाएंगे ।
नारी उत्थान की चर्चाओं से नारी का कभी भला होना सम्भव नहीं है ।पुरुष चित्त और नारी चित्त के समवेत बदलाव "नारी की असलियत" को स्थापित कर सकता है ।हम नारी महत्ता को अंतरतम से स्वीकारते हैं ।लेकिन हमारे एकल प्रयास से नारी को कभी वास्तविक शक्ल और सीरत मिलना नामुमकिन है ।

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अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।