फ़रवरी 07, 2017

मुशायरे की धमक से थिरका सहरसा....


देश से लेकर विदेशों तक धूम मचाने वाले शायर और शायराओं ने की शिरकत.... 
कला भवन एक यादगार शाम का बना गवाह .........
मुकेश कुमार सिंह की रिपोर्ट-----
सहरसा में कल सोमवार की शाम में आयोजित हुए मुशायरे ने ना केवल एक बेहतरीन फंजा का माहौल पैदा किया बल्कि एक यादगार शाम के रूप में दशकों लोग इसे याद रखेंगे ।इस भव्य मुशायरे का आगाज एसडीओ सदर, मो० जहाँगीर आलम, डॉ०अब्दुल कलाम, अंजुम हुसैन और मो० ताहिर हुसैन के द्वारा किया गया ।
मुशायरा में मो० जहाँगीर आलम ने अपनी ताजा गजल "मेरी आँखों में जो, बहता हुआ ये पानी है,  तेरी चाहत की, यही आखरी निशानी है" ।। सुनाकर उपस्थित श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया ।
सहरसा शहर के कला भवन में ऑल इंडिया मुशायरा एवं कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया । इस मौके पर मेहमाने खुसूसी के तौर पर एसडीओ सदर मोहम्मद जहांगीर आलम ने शिरकत की । यूँ प्रोग्राम का विधिवत शुरुआत डॉक्टर अब्दुल कलाम ने शम्मा रोशन के जरिए की । बताते चलें की मेहमाने ऐजाज़ी के तौर पर सोशल वर्कर मोहम्मद जहांगीर ने शिरकत की ।
इस मौके पर SDO सदर जहांगीर आलम ने अपने ख्याल का इज़हार करते हुए कहा कि उर्दू सिर्फ मुसलमानों की ज़ुबान नहीं है बल्कि यह एक मुल्क की ज़ुबान है और उर्दू सिर्फ ज़ुबान ही नहीं बल्कि यह एक तहज़ीब का नाम है ।मगर अफ़सोस होता है कि आज उर्दू जुबान अपनों की वजह से ही दम तोड़ रही है ।इसलिए ज़रूरत है कि इस ज़ुबान को ज़िंदा किया जाये और यह विशाल शक्ल अख्तियार करे इसके लिए माहौल तैयार किया जाए ।
इस महफिले मुशायरा के खास मौके पर दिल्ली जामिया मिलिया विश्यविद्यालय से सहरसा की जमीं पर आये प्रसिद्ध इंक़लाबी शायर अकमल बलरामपूरी ने अपने कलाम के जरिये कहा की "हमको इस मुल्क का ग़द्दार बताने वालों ।हमने बंटवारे में अपनों से बग़ावत की है"।अकमल बलरामपूरी ने देशभक्ति पर अपनी शायरी सुनाते हुए कहा कि "अभी बन्द होती आँखों के बहुत अरमान बाक़ी हैं,हमारी टूटती साँसों में हिंदुस्तान बाक़ी है ।
जलालपुर से आयी अंतर्राष्ट्रीय शायरा चाँदनी शबनम ने अपने नायाब अंदाज में शायरी पढ़ी,की "उसी सबब से जुदा हो गए हैं हम दोनों,ना ऐतबार उसे था ना ऐतबार मुझे"। सुप्रिया शबनम ने अपने कलाम में पढ़ा की "जो बेखबर है आँधियों के खोफ़ से यहाँउन कश्तियों को अब तो बचाने की बात है"।
इसी कड़ी में विकास बोखला ने पढ़ा की "ऐसी नोटों की मार खाते हैं,रजनी गंधा उधार खाते हैं"। पटना से तशरीफ़ लाये क़ासिम खुर्शीद ने पढ़ा की "हमारे इश्क़ का अब तक निशान रौशन है,ज़रा सी दूरी है और दरमियान रौशन है ।
अराधना प्रसाद ने पढ़ा की "तेरे आमाल तुझे खुद ही सजा देंगे,अब ना मुंसिफ ना गवाहों का हवाला होगा", ।इनके अलावा इस मुशायरे में समीर परमल,संजय कुमार कुंदन,रामनाथ,श्वाती भारती ने भी अपनी रचनाएं पढ़ीं ।एक बेमिशाल और हसीन शाम थी जिसमें श्रोताओं ने खूब आनंद लिए ।प्रोग्राम के आखिर में सदर एस डी ओ जहांगीर आलम ने सभी आये हुए शायरों को मोमेंटो दिया ।
बताना लाजिमी है की महफिले मुशायरा को कामयाब बनाने में गुड्डू हयात, मोहम्मद मोइउद्दीन, फिरोज आलम, अतहर अली, बबलू, अंजुम हुसैन, डॉक्टर अबुल कलाम, अनवार, छतरी यादव का बहुत हाथ रहा ।जाहिर तौर पर ऐसे कार्यक्रम बराबर होने चाहिए जिससे लोगों का ना केवल मनोरंजन होगा बल्कि उर्दू भाषा को सुर्खाबी पर भी लगेंगे ।गीत,गजल,कलाम,रुबाई और मरसिये के जरिये हम एक भाषा से परिचित नहीं होते हैं बल्कि एक तहजीब से हमारा साक्षात्कार होता है ।

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अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।