अगस्त 15, 2013

कितने आजाद हुए हैं हम


मुकेश कुमार सिंह: 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ था तो उस वक्त जहां वर्षों की गुलामी से निजात पाने का का सुकून था वहीँ खुली हवा में साँसे लेकर सतरंगी सपनों को साकार करने का जलजला था.लेकिन आजादी के 6 दशक से ज्यादा गुजर जाने के बाद एक तो लोगों की हालत बद से बदतर हुई है वहीँ आजादी कब और कैसे मिली और आजादी क्या होती है तक को लोग भुला बैठे हैं.बताना लाजिमी है की कोसी के इस इलाके में गरीबी,भुखमरी, अशिक्षा,बेरोजगारी,बिमारी और तरह--तरह की मुश्किलें कुलाचें भरती हैं.यहाँ दो रोटी के लिए लोग रोजाना जिन्दगी से जंग लड़ते हैं.जाहिर तौर पर सीलन,टीस और दर्द के रहबसर में आजादी के मायने कहीं गुम हो गए हैं.यही वजह है की इस इलाके में आजादी आज ना केवल बेस्वादी है बल्कि बेमानी साबित हो रही है.
मजदूर तबके के लोग जो रोज कड़ी मेहनत करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं,उन्हें आजादी और गुलामी में क्या फर्क नजर आएगा.उन्हें तो रोज जिन्दगी से जंग लड़नी है.उन्हें क्या पता की आजादी कब और कैसे मिली या फिर आजादी कहते किसे हैं.इस इलाके में रोजगार का टोंटा है.हजारों की तायदाद में लोग इस इलाके से दुसरे प्रांत रोजी--रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं.घर का चुल्हा रोज जल सके यह मिल का पत्थर साबित हो रहा है.एक तरफ बच्चे भूख से कुलबुला रहे हैं तो दूसरी तरफ बुजुर्गों को निवाला मिल पाना नामुमकिन साबित हो रहा है.बच्चों का जीवन पतझड़ में धूल--धूसरित हो रहा है.हर तरफ हताशा और निराशा का मंजर है.
आजाद भारत की जो तस्वीर सामने है वह निशित रूप से बदहाली का परचम है.यहाँ गुलामी और आजादी में फर्क करना मुश्किल है.ना जाने कब इस देश को आजादी का अहसास होगा और कब यह देश मुकम्मिल खुशहाल होगा.

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*अपनी बात*

अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।