जनवरी 20, 2012

भीतरखाने की बातें

                                                                       "भीड़ का गुस्सा"
मुकेश कुमार सिंह
(Editor In Chief)
Saharsa Times
आज हम आपसे भीड़ के गुस्से को लेकर चंद जरुरी बातें करना चाहते हैं.आखिर भीड़ को इतना गुस्सा क्यों आ रहा है और भीड़ यक ब यक इतनी बाबली होकर अप्रत्यासित और गंभीर घटनाओं को अंजाम क्यों दे रही है.भीड़ आज खुद कानून को हाथ में लेकर फैसला सुनाने लगी है.यह सिलसिला ना केवल दुखद भर है बल्कि इसपर गंभीर चिंता करने की जरुरत है.हमने सहरसा को बहुत करीब से देखा है.इस जिले के लोग काफी शांतिप्रिय और अमन पसंद हैं.दंड के रूप में सामने वाले को क्षमा करना यहाँ की मजबूत परंपरा रही है.लेकिन विगत के कुछ वर्षों में इस इलाके के लोगों की जीवनशैली में बड़े बदलाव आये हैं.बात--बात प़र लोग उलझने से लेकर बड़ी घटना तक को अंजाम देने से गुरेज नहीं करते.एक घटना के बाद पहले लोग एक जगह जरुरु जमा होते थे लेकिन तब उनका मकसद बड़ा साफ़ था की वे घटित घटना प़र अपना रोष तो जरुर जाहिर करते थे लेकिन घटना आगे फिर से घटित ना हो इसके लिए वे आपस में ही बहस--विमर्श करके हल निकाल लेते थे.लेकिन अब हालत पूरी तरह से बदले हुए हैं.अब छोटी सी घटना प़र भी लोग बड़ी तेजी से लामबंद होते हैं और बिना किसी बातचीत के बस वे हमलावर की शक्ल में आकर ना केवल तोड़फोड़ और आगजनी करते हैं बल्कि जमकर खूनी उत्पात भी मचाते हैं.यह विकट परिस्थिति है.सामाजिक चिंतकों,कार्यकर्ताओं,मनोंविशेषज्ञों से लेकर विभिन्य क्षेत्रो से जुड़े आमजन को चुनौती बन रही इस समस्या का हल निकालने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए.बड़ा सवाल है की आम लोगों को आखिर किन बातों की वजह से इंतना क्रूर गुस्सा आ रहा है.सवाल बड़ा और गंभीर है.अमूमन मामलों में लोगों का ज्यादा गुस्सा पुलिस--प्रशासन को लेकर होता है.वैसे लोगों का गुस्सा चिकित्सक,विभिन्य वाहन चालक और मालिकों से लेकर दबंग और अपराधियों प़र भी फूटता है.सबसे पहले हम पुलिस--प्रशासन प़र लोगों को क्यों गुस्सा आता है इस बात की चर्चा करें.पहले पुलिस महकमे को लें.पुलिस के काम करने के तरीके में भारी बदलाव आये हैं.एक ज़माना था जब थानेदार से मिलना मील का पत्थर साबित होता था लेकिन आज के समय में एस.पी,डीआईजी,आईजी से लेकर डीजीपी तक सुलभ हैं जिनसे जनता सीधे रूबरू हो रही है.यह सरलीकरण जायज है लेकिन इसके बड़े नुकशान भी हुए हैं.पुलिस के निचले अधिकारी आज पूरा न्याय दे पाने में खुद को असहाय पा रहे हैं.जाहिर तौर प़र इनके ऊपर बड़े अधिकारियों का दबाब होता है.हद तो यह है की छोटी से छोटी बात के लिए भी बड़े अधिकारी अपने निचले अधिकारियों से जबाब-तलब करते रहते हैं.काम में पारदर्शिता आवश्यक है लेकिन अनावश्यक दबाब ठीक बात नहीं है.छोटे अधिकारी को लगता है की यह मामला बड़े अधिकारी तक जाएगा ही इसलिए वे पूरी निष्ठा से उक्त मामले में न्याय का पुनः स्थापन नहीं कर पाते हैं.अमूमन मामले में आम जनता को न्याय मिलने में ना केवल अनावश्यक देरी होती है बल्कि न्याय मिल भी नहीं पाता है.पूरी प्रक्रिया के दौरान पद,पैसा,रसूख और पैरवी भी न्याय को प्रभावित करता है.यह भी एक बड़ी वजह है लोगों के बीच गुस्सा पैदा करने के लिए.सड़क हादसे,डकैती,लूट,अपहरण और ह्त्या मामले में जब आक्रोशित लोग लामबन्द होकर सड़क जामकर आन्दोलन करते हैं तो पुलिस और प्रशासन यहाँ प़र साझा गलती करती है.जाम और आन्दोलन की सूचना प़र त्वरित कारवाई नहीं होती है.इससे मुट्ठी भर लोगों को जहां संगठित होने का भरपूर समय मिलता है वहीँ उस भीड़ में असामाजिक तत्वों को भी प्रवेश का सुनहरा मौका मिल जाता है.ऐसे में अधिकारियों के मौके प़र आने से पहले भीड़ खुद को इतना तैयार कर लेती है की फिर उन्हें आसानी से समझाना मुश्किल हो जाता है.हमने कई मामलों की तटस्थ पड़ताल की है जहां पुलिस--प्रशासन के अधिकारियों ने भीड़ को उग्र होने के लिए भरपूर समय दिए हैं.ऐसे मामलों में अधिकारियों को आनन्---फानन में घटनास्थल प़र पहुंचना चाहिए.एक सबसे अहम् बात यह की भीड़ से जो अधिकारी वादा करके आते हैं वे मामले को शांत कराने के बाद उन वायदों को पूरा कराना एक तरह से भूल जाते हैं.यह बड़ी गलती है जिसकी वजह से जनता का विश्वास अधिकारियों प़र से उठ रहा है.पुलिस की अपराध की फाईलें लगातार मोटी होती जा रही हैं लेकिन किसी भी मामले का पूरी तरह से पटाक्षेप नहीं हो पाता है.हाल के दिनों में जनता का पुलिस और प्रशासन प़र से एक तरह से भरोसा पूरी तरह से उठा दिख रहा है.पुलिस की कार्यशैली भी लगातार ऐसी रही है जो उसे कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी है.आमलोगों के बीच अब पुलिस का कोई भय और खौफ नहीं है.जाहिर तौर प़र लोगों के बीच पुलिस का भय और खौफ होना आवश्यक है लेकिन यह भय और खौफ शोले के गब्बर वाला नहीं होना चाहिए बल्कि ये व्यापक मायने वाले होने चाहिए. प्रशासन के अधिकारियों प़र से भी लोगों का भरोसा हालिया समय में उठने लगा है.सरकारी योजना में लापरवाही से लेकर व्यापक पैमाने पर मची लूट की वजह से आम जनता आज खुद को ठगा महसूस रही है.ऐसे में उनका गुस्सा भी भीड़ का संबल बन जाता है.पुलिस--प्रशासन को नुक्ताचीनी की जगह आत्ममंथन करने की जरुरत है.समाज के सभी वर्गों के भले जनों से उनका लगातार संवाद होना चाहिए.जरुरतमंदों को समय प़र उचित न्याय दिलाना चाहिए.दबाब और प्रभाव के अंदर काम करने की कुंठा से उन्हें मुक्त होना चाहिए.वे जिस कुर्सी प़र बैठे हैं उन्हें उसके एवज में भरपूर वेतन और मान--सम्मान मिल रहे हैं.वे सामने वाले को कभी कमतर ना समझें और मन से यह भावना निकाल दें की वे किसी प़र तरस खा रहे है या किसी प़र कोई उपकार कर रहे हैं.अपनी ड्यूटी को बस निष्ठा से अपनी ड्यूटी समझें.खुद को समाज से ऊपर समझने खुशफहमी ना पालें.अपने भीतर की कमियों को चिन्हित कर उन्हें निकालने से बड़े वजूद की परिकल्पना और उसका स्थापन संभव है.पद के अंदर समाया व्यक्ति कभी भी अच्छा नहीं लगता है.जरुरत इस बात की है की व्यक्ति के अंदर बड़ा से बड़ा पद समाया हुआ हो.दूसरों की तकलीफों को खुद की तकलीफ समझकर समाधान करने की मंशा रखें और कोशिशें जारी रखें तो आक्रामक हो रही जनता को ठोक--बजाकर गलती करने से रोका जा सकता है.समय पूरी तरह से हाथ से नहीं निकला है.व्यक्ति बदलेगा तो जग बदलेगा.सिर्फ हमारे बदलने का इन्तजार ना करें.खुद को बदलने की दिशा में भी कदम बढाईये.हर समस्या का समाधान संभव है.जरुरत है सिद्दत के साथ समस्या को समझा जाए और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उसके समाधान का प्रयास किया जाए.कोई भी आसमान से नहीं टपके हैं.सभी ज़मीन के बन्दे हैं.कोई आगे निकल गया तो कोई पीछे छूट गया.अपनी कुर्सी का दंभ ना करें.भीड़ को आखिर गुस्सा क्यों आ रहा है और भीड़ क्यों बलबे प़र आमदा है इसके लिए उनकी तकलीफों को गंभीरता से जानिये और उसके समाधान का जतन कीजिये.थोथा,कुंद और मरियल कार्यशैली का नतीजा "भीड़ का गुस्सा" है.नौकरशाहों को सामंती होने से परहेज करते हुए नव विहान के लिए सार्थक कोशिशों से लैस होकर सामने आना होगा.शान्ति,अमन और ज्ञानियों के इस देश में फिर आगे देखिएगा व्यक्ति से लेकर भीड़ कभी भी कानून को अपने हाथ में नहीं लेगी.

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