अक्तूबर 15, 2011

कोशी की दर्द गाथा

कोशी की दर्द गाथा  
 15-10-2011
 बनना बिगरना टूटना उजरना ये शौगात हमे तो उपरवाले ने हमारे भाग्य में लिखा जिसे में नहीं मिटा सकता. बचने की लाख मशकत कर ले फिर भी हमें कोशी के उफनती धाराओं में  हर वर्ष हमे विलीन हो जाना हमारी फेहरिश्त सी है.. कोशी हर साल अपनी विनाश की कहानी लिखती तो है महज ये कहानी  सरकार के आँखों से कोशो दूर रह जाती है.. एसे में हम सिर्फ ओर सिर्फ कोशी के रहमो करम पर अपने को छोड़ देते है.. कोशी के उफनती धाराओं में जब पूरा का पूरा गावं विलीन हो जाता है तब सरकारी बाबु का कुभ्करना नींद टूटता है... तब जाके शुरू हो जाती है सिर्फ जाँच ओर जाँच बन जाती है एक नई जाँच समिति.. जी हाँ मधेपुरा सहरसा और सुपौल ये तीन एसे जिले है जहा कोशी हर साल अपनी नई कहानी गडती है गांव का गांव कोशी के आगोश में शमा जाता है.. उसके बाद हम अपनी तबाही का वो मंजर धीरे धीरे अपने दिलो दिमाग से भुलाने लगते है मगर दुखो का बादल नहीं छटता है. बढ़ तांडव के बाद फिर शुरू होती है बीमारी का तांडव जो कोशी के रहमो करम से बचा उसे बीमारी ने डंश मरना शुरू किया.. फिर क्या था देखते ही देखते शैकरो जिन्दगी बेसमय काल के गाल में समां गया.. परन्तु हमारी सरकार की संवेदना इनके मदद के लिए नहीं जग पाई..
  NDA -2 यानि की हम बेजुवानो की सरकार पेट की भूख मिटाने वाली सरकार महादलितों की सरकार की संज्ञा जिसे हमने दी वो भी हमारे लिए सिर्फ झूटी सपने दिखा के हमे एक जून की रोटी  के लिए मुहताज कर दिया.. हमारी किश्मत कोशी के रहमो करम से लिखी जाती है..
  2008 की कुशहां की त्राश्दी से विश्थापित हुए कई गांव इसे है जो दाने दाने को मोहताज है. तीन वर्षो के बाद भी सरकार के नुमाइंदे उनके दुखो को कम नहीं कर पाया. . खैर सरकार के लिए ये तो तीन साल पुरानी बात हो गई..मधेपुरा ,सहरसा और सुपौल के लगभग 65 लाख की आवादी कोशी के रहमो करम पे टिकी रहती है  मगज बानगीभर के लिए हम आपको सहरसा के उन गांव के बारे में बता रहे जहा कोशी के उफनती धाराओ ने इनकी तक़दीर में दुखो का सैलाब ला दिया.. नवहट्टा प्रखंड के केदली पंचायत  के रामपुर छातवन अशई बरियाही पहाडपुर सहित दर्जनों गांव कोशी के धार में कब का समां चूका  है. इस इलाके में हजारो परिवार बेघर होकर ना केवल खानावादोश की बेमकसद जिन्दगी जी रहे है बल्कि दोजख की यातना भी भोग रहे  है. इस इलाके के सेकड़ो  परिवार ने बलवा स्थित पूर्वी कोशी तटबंध दे एक रिंग बांध पर शरण ले रखा है. यंहा पर जिन्दगी लाचार, बेबश और लोगो की कृपा - दया पर टिकी है. क्या बच्चे ओर बूढ़े , महिलाये ओर जवान लोग भी कातर भाव लिए किशी फरिस्ते के आने की बाट जोह रहे है की कोई आसमानी ताकत उनके बीच आये ओर उनकी तक़दीर बदल दे.. भूखे लोग बीमारी के चंगुल में फसता जा रहा है .. जब पेट की फिक्र किसी सरकारी महकमो को नहीं है तो भला उनके इलाज के लिए कौन फिक्रमंद हो सकता है. सरकारी फाएलो में बंद  राहत की अटारी से कुछ छीटे तो बाढ़ विश्थापितो परे लेकिन वो ऊंट के मुह में जीरा वाली कहावत सी थी . एक तरफ जहा पेट की भूख से लोग त्राहिमाम कर रहे है वही दूसरी तरफ रिंकी कहती है की पडने का इच्छा है लेकिन ये इच्छा पेट की भूखा के साथ ही दफ़न हो जाती है. 
ये दर्द से भरी ऐसी बस्ती है जहा भूख मज़बूरी बेबशी बीमारी और सिर्फ टिस पलती है.. यंहा किसी का बड़ा सपना नहीं है हर साल उजरने और फिर से बसने में ही जिन्दगी कट जाती है .. इनकी दास्ताँ पूछने पर जुबान लड़खड़ाने लगती है जिससे दर्द खुद ब खुद टपकने लगता है. अगर आपको भी कभी इनके दुखो को कम करने का दरकार परे तो आप इस क्षत्रो में जाकर इनके दुखो को कम करने  का कोशिश जरुर करे. क्योंकी हमारी संवेदना अभी मरी नहीं है.
बड़ी सवाल ये है की सरकारी महकमा एसी कमरे में बैठे बैठे बाढ़ क्षेत्र का मुआइना कर रिपोर्ट तैयार कर देते है ओर जब इनसे जवाब तलब किया जाता है तो जा के क्षेत्रो का भ्रमण करते है. नीतीश जी को जिस तरह से जनता ने   चुनकर फिर से सत्ता में वापसी कराया उस पर ये सरकार खड़ी नहीं उतर रही है .. फिर से आवाम को जंगल राज की याद ताज़ा होने लगी है... संवेदनहिन्  सरकार के नुमाएंदे आखिर कब इनके दर्दो को कम करता है ये बड़ी सवाल है.                

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