मुकेश कुमार सिंह की रिपोर्ट:- दलालों
के चंगुल में महज आठ साल की उम्र में फंसकर लगातार सात वर्षों तक बंधुआ
मजदूरी करने वाले राकेश को बचपन बचाओ आंदोलन के प्रयास के दम पर वर्ष 2006
में ही ना केवल आजादी मिली बल्कि राकेश नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलास
सत्यार्थी के साथ ब्रांड एम्बेस्डर बनकर स्वीडन भी गया.पत्र--पत्रिकाओं में
उसकी जीवनी छपी और उसे कई पुरस्कार भी मिले.लेकिन आज राकेश सरकारी
उपेक्षाओं का दंश झेल--झेल कर बोझिल और बेजार है. रहने को घर नहीं, खाने को
अनाज नहीं और मजदूरी करना एक मात्र नियति.घीना गाँव के रहने वाले महादलित
परिवार के राकेश की कहानी सीलन--चुभन और टीस की एक ऐसी ईबारत लिख रहा है
जिसे देख--सुन कर आपकी रूह भी थर्रा उठेगी.कल राकेश के गाँव घीना
मुख्यमंत्री पधार रहे हैं.
यह राकेश
है. देखिये इसके खंडहरनुमा संज्ञा भर के घर को.यहीं पर राकेश के सारे सतरंगी
सपने पल रहे हैं.राकेश बेहद दुखी और हताश--निराश है.दलालों के चंगुल में
महज आठ साल की उम्र में फंसकर लगातार सात वर्षों तक
बंधुआ मजदूरी करने वाले राकेश को बचपन बचाओ आंदोलन के प्रयास के दम पर वर्ष
2006 में मुक्ति मिली.राकेश वर्ष 2008 में कैलास सत्यार्थी के साथ बंधुआ
मजदूरों का ब्रांड एम्बेस्डर बनके स्वीडन गया.वहाँ पर उसे WCPRC अवार्ड
मिला जिसमें बंधुआ मजदूरों के कल्याणार्थ स्वीडन सरकार ने 45 लाख डॉलर
दिए.इससे पूर्व वर्ष 2007 में ही राकेश भारत के राष्ट्रपति से भी मिल चुका
था. राकेश को स्वीडन में ही विश्व बाल पुरस्कार समारोह में जूरी के रूप में
बेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है.
राकेश की जीवनी यूँ तो कई
पत्र--पत्रिकाओं में छपी है लेकिन वर्ष 2008 में किल्लोल नाम
की पत्रिका में छपी उसकी जीवनी ने जनमानस को झंकझोर कर रख दिया था.आज राकेश
परेशान हाल है,उसे आजतक कोई भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है.बंधुआ
मजदूरी से मुक्ति के बाद राकेश जीवन में कुछ बड़ा बनना चाहता था लेकिन ना
कोई ठौर ना ठिकाना तो जीवन के सपने आखिर सच हों तो कैसे.
राकेश आज एक अदद घर
के लिए भी तरस रहा है. मजदूरी कर के अपने परिवार की गाड़ी वह किसी तरह से
खींच रहा है.राकेश का दोस्त लव कुमार भी काफी दुखी है और कह रहा है की
महादलितों के लिए तो बहुत सारी योजनाएं हैं लेकिन वे सारी योजनाएं बीच में
ही कहीं गुम हो जाती है,उनतक पहुँचती ही नहीं है.मांझी जी उनके गाँव आ रहे
हैं, यह ख़ुशी की बात है लेकिन वे कुछ ऐसा करें की खास कर के गरीब महादलित जो
पेट की खातिर पंजाब, हरियाणा, कश्मीर या अन्य प्रांत पलायन कर रहे हैं, वह पूरी तरह से रुक जाए. इस
मर्ज और दर्द को लफ्फाजी की मरहपट्टी नहीं बल्कि इसका ईमानदारी से इलाज
कैसे किया जाए,उस जतन की जरुरत है.राकेश व्यवस्था से कई ऐसे सवाल कर रहा है
जिसका जबाब आसानी से दे पाना नामुमकिन है.
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