मार्च 04, 2013

पतझड़ में फना होता बचपन

बेहद ख़ास रिपोर्ट---मुकेश कुमार सिंह
गरीबी,मुफलिसी में यहाँ तार--तार और जार--जार है बचपन /सच में,जब मज़बूरी हो चस्पां तो सपने नहीं पलते
भविष्य संवारना किसे अच्छा नहीं लगता,सपने देखना किसे अच्छा नहीं लगता.लेकिन जहां गरीबी और मुफलिसी में जिदगी जार-जार हो और जहां एक जून रोटी का जुगाड़ मील का पत्थर साबित हो रहा हो वहाँ सपने नहीं पलते,वहाँ जिन्दगी बस घिसटती,रिसती--सिलती यूँ ही कब शुरू और कब खत्म हो जाती है,कुछ पता ही नहीं चलता.सहरसा का आलम कुछ ऐसा है की यमराज को भी रोना आ जाए.सुदूर ग्रामीण इलाके की बात तो छोड़िये जिला मुख्यालय में मासूम नौनिहाल थोक में अपना भविष्य संवारने की जगह सड़कों के किनारे, ऑफिस--ऑफिस या फिर जिधर पेड़ों से भरे इलाके हैं उधर पत्ते  और जलावन चुनने में सुबह से शाम कर देते हैं.ये वे तंगहाली की कोख से जन्मे बच्चे हैं जो पत्ते और जलावन चुनकर ले जाते हैं तो घर का चूल्हा जलता है फिर सडा--गला कुछ पकता है और फिर कुलबुलाते पेट की ज्वाला शांत होती है.
सरकारी इंतजामात से महरूम घरों में अभिशाप की तरह पैदा हुए इन बच्चों को क्या पता की इनके घर के बड़ो और खुद उनपर सियासतदान सियासत की बड़ी--बड़ी सीढियां चढ़ते हैं.एक तरफ गरीबों और बच्चों के नाम प़र योजनाओं की आई सुनामी थमने का नाम नहीं ले रही है तो दूसरी तरफ सरकारी खजाने के मुंह इनके लिए यूँ खुले हैं की कभी बन्द होने का नाम ही नहीं लेते,फिर भी ये गरीब घर के बच्चे दोजख की बेजा जिन्दगी जीने को विवश हैं.सरकार के सारे नारे--दावे "सब पढ़े--सब बढे" और "मुनिया बेटी पढ़ती जाए" सहरसा में पूरी तरह से दफ़न हो रहे हैं.आज हम आपको सच की वह तस्वीरें दिखाने जा रहे हैं जो सुशासन की सरकार के दावों की ना केवल पोल खोल रही हैं बल्कि सरकार को कटघरे में भी खड़ी कर रही है.
आज हम आपको पतझड़ में बचपन का नजारा कराने लाये हैं.देखिये इन मासूमों को.किसी के जिगर के टुकड़े हैं ये.कोलतार की बड़ी--बड़ी सड़कें,लक्जरी गाड़ियां,ऊँची इमारतें,हवाई जहाज,उद्योग--धंधे,स्कूल--कॉलेज,सिनेमा--टीवी और सियासत के छल--प्रपंच सहित भविष्य के तमाम बहुरंगी सपनों से बेखबर हैं ये.ये सभी मुसीबत और अभाव की कोख से जन्मे ऐसे बच्चे हैं जो दोजख में पल--बढ़कर बेजा जिन्दगी जीने को विवश हैं.घर के बड़े--बुजुर्ग के हाथ में कोई बड़ा रोजगार नहीं है.मेहनत--मजूरी करके मुट्ठी भर पैसे लाते हैं तो किसी तरह जिन्दगी में सांस भरी जाती है.
ये मासूम बच्चे तडके सुबह ही घर से निकलते हैं पत्ते और जलावन चुनने के लिए.दिन--भर पत्ते और सुखी लकडियाँ इकट्ठी करते हैं फिर उसे बोड़े में भरकर घर लाते हैं.इसी से खामोश चुल्हा अंगराई लेता है फिर कुछ अनाज पकते हैं तो फिर सब मिल--बैठकर खाते हैं.इधर से उधर भर दिन मंडरा--मंडराकर ये नन्हीं जानें अंगीठी जलाने की जुगात करते हैं.अधिकारियों के आवास हों या उनके कार्यालय या फिर पेड़ों के झुरमुट,ये फटे--फटे बच्चे आपको मिल जायेंगे.इन्हें देखकर आप आसानी से ये नहीं समझ पायेंगे की जिन्दगी इनका मजाक उड़ा रही है की ये बच्चे जिन्दगी का मजाक उड़ा रहे हैं.हमने जब इन बच्चों को टटोलना चाहा तो इनका कहना था की वे और बच्चों की तरह पढना चाहते हैं,स्कूल जाना चाहते हैं लेकिन क्या करें स्कूल जाने और पढने की जगह पत्ते और जलावन चुनने चले आते हैं.आखिर वे करें भी तो क्या.भर दिन इनकी मिहनत से जब ये साजो--सामान घर पहुँचता है तब घर के चूल्हे जलते हैं.आईये दिलीप कुमार,शबाना और अफसाना आदि बच्चे अपने दर्द को इसकदर बयां कर रहे हों गोया इनके जीवन में बस पतझड़ ही पतझड़ है.
सहरसा जिले में विद्यालय की कोई कमी नहीं है.इस जिले में प्राथमिक विद्यालय 741,मध्य विद्यालय 509 और 52 उच्च विद्यालय हैं.लेकिन क्या करें इन गरीब के बच्चों के करम ही फूटे हैं की ये बच्चे विद्यालय जाने और पढने से वंचित हैं.सरकार छात्रवृति,पोशाक,साईकिल सहित मिड डे मील योजना चलाकर बच्चों को स्कूल लाने की भरपूर कोशिश कर रही है लेकिन जमीनी स्तर प़र ये योजनायें खाऊ--पकाऊ बनकर रह गयी हैं.सहरसा का शायद ही कोई विद्यालय ऐसा हो जहां समस्याएं ना हों.ओम प्रकाश नारायण जैसे समाजसेवी और स्कूल--कॉलेज में पढने वाले बच्चे भी सरकार को लताड़ने में जुटे हैं.इनकी मानें तो सरकारी योजनाओं के धरातल प़र सही ढंग से नहीं पहुँचने की वजह से आज मासूम हाथ पत्ते और जलावन चुनने को विवश हैं.समाजसेवी दहाड़ते हुए कहते हैं सरकार की खिचड़ी योजना फ्लॉप है और सारी योजनाओं को घुन्न लगे हुए हैं.कॉलेज में पढने वाले बच्चे कह रहे हैं की सिर्फ स्कूल खोलने से नहीं होगा.सरकार को गरीबी दूर करने के लिए बड़े और कठोर कदम उठाने होंगे.
अब बारी है सरकारी हाकिमों की.हमने पतझड़ में तब्दील इन गरीब घर में जन्मे मासूम नौनिहालों को लेकर जिला शिक्षा अधिकारी रामनंदन प्रसाद से तल्ख़  सवाल किये.इनकी माने तो पहले से हालात काफी सुधरे हैं.गरीबी की वजह से इन बच्चों के माता--पिता शिक्षा के महत्व को नहीं समझ पाए हैं.ये अधिकारी एक तरह से बता रहे हैं की ज्यादातर कमियाँ इन बच्चों के परिजनों का है तो कुछ कमियाँ उनमें भी है,इसी कारण से ये मंजर है.आने वाले दिनों में व्यापक सुधार दिखेंगे.
"सब पढ़े--सब बढे" और "मुनिया बेटी पढ़ती जाए" 
सुशासन बाबू हम आपको कोसी तटबंध के भीतर या फिर सुदूर ग्रामीण इलाके की तस्वीर नहीं दिखा रहे हैं.ये सारी तस्वीरें जिला मुख्यालय की हैं.आँखों प़र चढ़ा सरकारी चस्मा उतारिये और इन तस्वीरों को देखिये.हमें पता है की आप संवेदनशील मुख्यमंत्री हैं.आपका कलेजा इन तस्वीरों को देखकर जरुर फट पड़ेगा.अगर ये तस्वीरें आपको दहला--रुला नहीं सकीं तो यकीन मानिए आगे हम कोसी तटबंध के भीतर और सुदूर ग्रामीण इलाके की तस्वीरें लेकर आयेंगे जो सुशासन के सारे ढोल--ताशे के चिथड़े तो उड़ाएंगी ही,साथ ही सुशासन या कुशासन या फिर ठगासन सभी की सारी पोल--पट्टी भी खोलकर रख देंगी.जागिये नीतीश बाबू जागिये.इतना आसान नहीं है विकसित बिहार के सपने को सच कर दिखाना.

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