जनवरी 23, 2013

अब "दामिनी"की अंतहीन कथा को रोकना होगा

जिस देश में नारी की पूजा होती हो वहाँ "दामिनी" के साथ हृदय विदारक घटना घटित हो,सहसा यकीन करना मुमकिन नहीं है।लेकिन जब सच शक्ल लिए साबूत सामने हो तो तमाम सांस्कृतिक मूल्य और विरासतें एक--एक कर धराशायी होते दिखते हैं।"दामिनी"महज एक बानगी है जो वर्तमान समाज में व्यक्ति के मानसिक भटकन को स्थायित्व दे रहा है।जाहिर तौर पर करोड़ों की आबादी वाले इस देश में इस तरह की कुछ घटनाएं ही सामने आ पाती हैं जबकि बहुतेरी ऐसी घटनाएं सुचना तंत्र के अभाव या अन्य मर्यादाओं की ओट में छुपी रह जाती हैं।मुद्दा संवेदनशील भर नहीं बल्कि आदमजात की चैतन्यता पर भी प्रश्न खड़े करने वाला है।इस विषय पर समाज के वृहत्तर पैमाने पर गहन चिंतन,मनन और बहस--विमर्श की जरुरत है।दामिनी इस दुनिया से असमय कूच कर चुकी है लेकिन उसकी दर्दीली विदाई कई बड़े--बड़े और जलते सवाल छोड़ गए हैं।
मुकेश कुमार सिंह की कलम से-------  भारत जैसे विशाल देश में जिसके उद्दभव और बुनियाद में अच्छी वृतियां और गुणी संस्कार भरे हों,वहाँ इंसानियत की गिरावट के आधिक्य परिलक्षित हो रहे हैं।जाहिर तौर पर यह पौराणिक और नैसर्गिक मूल्यों के पतन को दर्शा रहा है।उत्थान,उत्कर्ष और विकास के अर्थ की व्यापकता में नैतिकता लगभग गौण हो चुकी है।ऐसा नहीं है की पुरानी व्यवस्था में भूल और गलतियां नहीं होती थी।इतिहास इस बात का गवाह है की श्रृष्टि सृजनकाल से ही अच्छाई और बुराई दोनों साथ चल रहे हैं।लेकिन आज के परिपेक्ष्य में मानव मूल्यों के ह्रास का ग्राफ पराकाष्ठा पर है। 
स्वच्छंदता और समानता सार्वभौम आवश्यक जरुरत हो सकती है लेकिन उसे भारतीय परिवेश के मूल्यों के सांचे में पिरोया होना चाहिए।शारीरिक जरुरत की अपनी कार्यशैली और क्रियाशीलता है जिसमें मानसिक संतुलन और रिश्तों की मर्यादा के साथ--साथ पुरातन मान्यताओं का स्वस्थ स्पंदन नितांत जरुरी है।बदलते परिवेश में समाज का ढांचा चरमराया है।इतिहास की खोह में उतरकर जब देखने की कोशिश होगी तो मूल्य संचित व्यवहारों को जीवित रखने के लिए इच्छाओं के बलिदान की सच्ची कहानी मालूम होगी।आज इच्छाओं पर अंकुश नहीं हो रहा है जिसका परिणाम समाज में विभिन्य स्तरों पर देखा जा सकता है।आप पीछे को देखें तो भारतीय संस्कृति के अन्दर किसी गाँव के एक अच्छे छवि वाले व्यक्ति की जब मौत होती थी तो ना केवल उस गाँव का चुल्हा उस दिन खामोश रहता था बल्कि कई दिनों तक उस गाँव में मातम रहता था।लेकिन आज के समय में सगे रिश्तेदार की मौत पर भी सभी कुछ हल्केपन के साथ बड़े नाटकीय ढंग से निपटा लिया जाता है।यह अलग बात है की अगर उस मौत पर कहीं सियासी नजर लग गयी हो तो कुछ वक्ती हलचल हो जाती है।
विषय की गंभीरता के लिए विषय पर बने रहना लाजिमी है।सवाल है की आखिर "दामिनी"के साथ इतनी वीभत्स घटना की परिस्थिति कैसे तैयार हुयी।इतने बड़े घृणित कार्य के लिए आत्मस्वीकृति कैसे मिली।आखिर इंसान इतना बेदर्द और हैवान कैसे हो गया।ऐसी वीभत्स घटनाओं के लिए कठोर कानून बनाए जाने की मांग और उसका बनना,हो सकता है की समाज को नियंत्रित और संतुलित करने के लिए आवश्यक हो।लेकिन यहाँ यह समझना बेहद जरुरी है की कानून,दंड और क्षमा सभी कुछ व्यक्ति पर ही लागू होता है और सभी कुछ उसी पर निर्भर करता है।ऐसे में,जीवन मूल्यों के धराशायी हो रहे दिवार को कठोर कानून से आखिर कैसे मजबूती से खड़ा किया जा सकेगा।दामिनी को जलता सवाल बनाकर पुरे देश में अभी बहस छिड़ी हुयी है।चूँकि यह घटना ऐसी जगह घटी है जहां देश के सर्वोच्च सरकारी और गैर सरकारी संस्थान हैं और कानून भी वहीँ से निकलते हैं।दामिनी जैसी घटना की पुनरावृति ना हो इसके लिए कड़े कानून बनाकर क्या यह संभव है?कड़े कानून से कुछ घटनाओं पर अंकुश जरुर लगाए जा सकते हैं।लेकिन बताते चलें की सामाजिक विषमता की वजह से पारदर्शिता के साथ कानून का समाज के निचले पायदान तक ससमय पहुँच पाना कतई आसान नहीं होगा।
ऐसा नहीं है की हम कड़े कानून बनने के पक्ष में नहीं है।इस जघन्य और बर्बर अपराध के विरुद्ध कठोर कानून जरुर बनने चाहिए।हम यह कहना चाहते है की हमारे देश में रिश्तों की एक बड़ी श्रृंखला है जिसपर हमारा समाज खड़ा और टिका हुआ है।माँ--बाप,बेटा --बेटी,चाचा--चाची,फूफा--बुआ,दादा--दादी,नाना--नानी,भाई--बहन,पति--पत्नी,जीजा---शाली और ना जाने और कितने अनमोल रिश्ते।हर रिश्ता की अपनी मर्यादा और उसकी सीमा है।आखिर आज किन कारणों से रिश्तों की गर्माहट कम हो रही है?आखिर क्यों आज रिश्तों की कोई मेड़ नहीं है?आखिर क्यों आज रिश्तों के दायरे को घुन्न लग रहे हैं।काम इच्छा की समय पर भरपाई,तुष्टि और पीढ़ी विस्तार के लिए विवाह संस्कार का भी इस समाज में इंतजाम है।तो क्यों आज रिश्ता अपनी शक्ल को बदलकर बदरंग हो रहा है।कई ऐसे प्रश्न हैं जिनके जबाब तलाशे जाने चाहिए।विकास और समृधि निसंदेह आवश्यक है लेकिन अंधदौड़ में नैतिकता की ह्त्या कतई जायज नहीं है।हमें अपने संस्कारों के दायरे में ही फलना--फूलना चाहिए।पहले संयुक्त परिवार का चलन था जहां पर बुजुर्गों का मान--सम्मान सर्वोपरि था।तब बुजुर्ग का आदेश आचरण बनता था।लेकिन आज घर के बुजुर्ग उपेक्षित हैं।पहले गुरुकुल था जहां नैतिक शास्त्र की पढाई सबसे जरुरी थी।पहले के समय में पारिवारिक जीवन को जीने के एक से बढ़कर एक गुर सिखाये जाते थे।लेकिन आज सबकुछ सिर्फ और सिर्फ हासिये पर हैं।हम कहना चाहते हैं की मानव मूल्यों और सत्कर्मों को कागजी वस्तु समझने की सोची--समझी गलती ही ऐसे घृणित अपराध की पटकथा लिख रहे हैं।दामिनी जैसी घटना को रोकने के लिए आंतरिक क्रान्ति की जरुरत है।बाहरी भौतिक चकाचौंध में जीवन का सही अर्थ कहीं गुम हो गया है।कड़े कानून के साथ--साथ स्त्री--पुरुष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे और एक दुसरे के पूरक हैं की साबूत सोच के बूते ही "दामिनी" की घृणित कथा को दुहराने से रोका जा सकेगा।  

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