सितंबर 21, 2012

केन्द्रीय विद्यालय का दर्द

रिपोर्ट चन्दन सिंह:  कोसी प्रमंडल के सुपौल,मधेपुरा और सहरसा जिले का इकलौता केन्द्रीय विद्यालय सहरसा अपने स्थापना काल से ही अपनी बदहाली प़र मोटे--मोटे आंसू बहा रहा है.1 अप्रैल 1996 में खुला केन्द्रीय विद्यालय आजतक बदस्तूर विभिन्य सुविधाओं के अभाव का दंश झेल रहा है.बताते चलें की 2 मार्च 1997 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने इसका उदघाटन किया था.
केन्द्रीय विद्यालय के बाहर खुली नाली है जिससे होकर ना केवल गंदे पानी बह रहे हैं बल्कि उसमें गंदे कचरे का भी अम्बार है.नाक फाडू बदबू से बच्चे हलकान--परेशान हैं.टूटे--फूटे खपरैल और चदरे के जर्जर भवन में यह विद्यालय पिछले डेढ़ दशक से संचालित हो रहा है. बारिश में नाम की छत से पानी टपकता है और विद्यालय के अंदर जल--जमाव भी हो जाता है.छोटे--छोटे कमरे हैं जहां कक्षा का ठीक से संचालन भी मील का पत्थर है.सुविधाओं की लम्बी फिहरिस्त की जगह यहाँ पढने वाले बच्चों के हिस्से सिर्फ केन्द्रीय विद्यालय में पढने का मुहर भर है.यूँ स्कूल प्रबंधन के भारी दबाब की वजह से बच्चों को टटोलकर उसको मुकम्मिल जुबाँ दे पाना मुमकिन नहीं है. इस विद्यालय का आलम यह है की यह नाक फाड़ू गंदगी के बीच और खस्ताहाल भवन में पिछले डेढ़ दशक से चल रहा है.हद की इंतहा देखिये स्कूल में ना तो पुस्तकालय की कोई व्यवस्था और ना ही है कॉमन रूम की.हैरत की बात तो यह भी है की यहाँ इंडोर या आउटडोर किसी भी खेल का कोई इंतजाम नहीं है.छोटे और कम कमरे में बच्चों की कक्षाएं लगती हैं.यूँ इस विद्यालय के लिए भूमि अधिग्रहण और भवन निर्माण के लिए वर्ष 2000 से ही तीव्र प्रयास शुरू हुए लेकिन तमाम मशक्कत बाद करीब छः करोड़ की लागत से वर्ष 2009 के दिसंबर माह में इस विद्यालय भवन का निर्माण कार्य सहरसा के संजय गांधी पार्क के पीछे सरकारी भूमि प़र शुरू किया जा सका.लेकिन इस विद्यालय प़र किसी की काली साया है की निर्माण कार्य के लिए राशि का अभाव है और निर्माण कार्य बीच में ही बन्द हो गया है.राशि के अभाव में काम पुर्णतः बन्द है.ठेकेदार एक माह पूर्व "काम पुर्णतः बन्द का बोर्ड लगाकर" फरार हो चुका है.अब इसके लिए कब राशि आएगी और कब इसका निर्माण कार्य पुनः शुरू और फिर कब खत्म होता है,इसपर अभी किसी तरह का कयास लगाना पूरी तरह से बेमानी है.एक अजोबोगरीब कहानी. इस विद्यालय की तड़प पिछले डेढ़ दशक से जारी है.आगे यह सिलसिला कबतक चलेगा हम फिलवक्त इसपर कुछ भी कहने से तो रहे.आगे--आगे देखिये होता है क्या.सरकारी योजनाओं में कौन सबसे पहले की परिपाटी कब की खत्म हो गयी है.जिस योजना की कोई जरुरत नहीं है या फिर जो ज़मीन प़र उतरते--उतरते दम तोड़ देती है,उसके पीछे सरकार से लेकर पूरा तंत्र पिल के पड़ा हुआ है.इधर बेचारी जनता-- हाय!हाय!बस रो,माथा पीट,सिसकियाँ ले और दम तोड़.

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अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।