दिसंबर 22, 2011

गरीब की मौत पर ठीक से मातम भी नहीं

सच कहते हैं की गरीब की मौत पर ठीक से मातम भी नहीं मनता और अगर कोई गरीब होने के साथ--साथ लावारिश हो तो उसकी  लाश तक को कोई सलीके से ठिकाने तक नहीं लगाता.यह अभागी पहले भूख से तड़पती थी फिर कड़ाके ठंढ और सर्द हवाओं ने उसकी कमजोर काया पर हमला किया और देखते ही देखते उसके प्राण ने उसका साथ छोड़ दिया.सहरसा के रेलवे परिसर में करीब 50 वर्षीय एक अज्ञात महिला ने बीते सुबह ठिठुराती ठंढ के सामने घुटने टेक दिए और करीब दस बजे उसकी मौत हो गयी.लेकिन हद की इन्तहा देखिये की सुबह दस बजे से लेकर रात के नौ बजे तक रेलवे के किसी अधिकारी ने इस अज्ञात महिला की लाश को यहाँ से उठाकर इसका दाह--संस्कार कराना मुनासिब नहीं समझा.GRP और RPF से लेकर रेलवे के तमाम अधिकारियों की नाक के नीचे घंटों लाश कंपकपाती ठंढ को कोसती रही लेकिन किसी के भीतर की इंसानियत नहीं जागी.सहरसा टाइम्स के दखल के बाद GRP के थानाध्यक्ष मौके पर पहुँचे फिर रात के ग्यारह बजे के बाद लाश को यहाँ से उठाया गया.हम कहाँ--कहाँ सरकार के इन सोये और संवेदनहीन तंत्रों को झंकझोड़ते और जगाते रहें.बीते छ सात दिनों के भीतर इस कड़ाके की ठंढ ने सहरसा के विभिन्य इलाकों में कई  लोगों की जान ले ली.ठंढ का कहर बढ़ता ही जा रहा है और सरकारी इंतजामात महज लफ्फाजी तक सिमटा हुआ है.दावे और जमीनी सच में ज़मीन और आसमान का फासला है.सरकार के कोष में कई मद के ठसाठस रूपये भरे--पड़े हैं लेकिन इस करमजली के लिए कफ़न भी मयस्सर नहीं है.स्थानीय लोगों का कहना है की वे इस लाश को सुबह से यहाँ पड़े देख रहे हैं लेकिन रेलवे के कोई अधिकारी इस लाश को यहाँ से नहीं उठा रहे हैं.रेलगाड़ी में पड़े बोड़े और सामान तसीली के लिए इन्हें दिख जाते हैं लेकिन यह लाश किसी को भी नहीं दिख रही है. 
नीतीस बाबु हम इस मौत को आखिर गम और मातम का हम कौन सा नाम दें.आखिर में हम इतना जरुर कहेंगे की यह मौत सरकारी इंतजामात और गरीबों को लेकर तरह--तरह के दावे करनेवाली सरकार और उसके नुमाईनदों की ना केवल कलई खोल रही है बल्कि उन्हें कटघरे में भी खड़े कर रही है.

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*अपनी बात*

अपनी बात---थोड़ी भावनाओं की तासीर,थोड़ी दिल की रजामंदी और थोड़ी जिस्मानी धधक वाली मुहब्बत कई शाख पर बैठती है ।लेकिन रूहानी मुहब्बत ना केवल एक जगह काबिज और कायम रहती है बल्कि ताउम्र उसी इक शख्सियत के संग कुलाचें भरती है ।