पत्रकारों की तरफदारी करने वाले कई संगठन हैं मात्र एक तुक्का ...
आखिर पत्रकारों पर कबतक होते रहेंगे जुल्म.....
पत्रकारिता का असल सबक लें पत्रकार.....
झाड़--फानूस से नहीं बनते पत्रकार....
मुकेश कुमार सिंह की दो टूक---
एक दौड़ था जब पत्रकारों को सूरवीर, क्रांतिवीर, समाज सुधारक, वृति सुधारक, सच्चा देशप्रेमी, वृहत्तर ज्ञानी, सच के सिपहसालार, प्रणेता, पुरोधा, कुशल नेतृत्व के संवाहक, विभिन्न सःस्थितियों का आईना और आम से खास लोगों के कवच जैसे तमगे से नवाजा जाता था। प्रेमचन्द्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, रामवृक्ष वेणीपुरी सहित कई और हस्तियां आधुनिक पत्रकारिता के शिरमौर्य थे। बाद के समय में कई और नाम आये जिसमें निखिल चक्रवर्ती,अरुण सौरी,अरुण सूरी,जे.राम जैसे पत्रकार भी शामिल थे ।लेकिन बदलते परिवेश में पत्रकारिता का दायरा बढ़ा जिससे पत्रकारिता के मायने भी बदलते गए ।
पत्रकारिता का साँचा और मूल कसौटी जस की तस रह गयी लेकिन पत्रकारिता अपना नया अर्थ स्पन्दित करने लगा । पहले बौद्धिक संवेदनाओं का स्खनन करने वाले लोग ही पत्रकारिता के क्षेत्र में आते थे जिनके भीतर सदैव सच्चाई की आग लगी रहती थी । लेकिन वक्त के थपेड़े और भौतिकवादी जीवन की आपाधापी में आज पत्रकारिता अपने संक्रमण काल से गुजर रहा है ।
आज पत्रकारिता में ऐसे लोग आ रहे हैं जिनकी ना कोई मौलिक विरासत रही है और ना ही पत्रकारिता का उनमें असल जलजला है । हमें याद है की कुछ दशक अहले जिस घर का बेटा नालायक हो जाता था,उसके अभिभावक कहते थे "अरे निकम्मा अगर कोई डिग्री नहीं ले सकते,तो कम से कम लॉ कर ले । कचहरी में दो पैसे कमायेगा"। ठीक इसी तर्ज पर आज पत्रकारिता चल पड़ी है ।
पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे लोगों का पदार्पण हो रहा है जिन्हें पत्रकारिता का ककहरा नहीं आता ।वे देखा--देखी इस पेशे में इसलिए आ रहे हैं की उनकी पहचान शासन--प्रशासन के लोगों के अलावे समृद्ध लोगों,माफिया और रसूखदारों से होंगे ।इस पहचान की आड़ में पिछले रास्ते से उनका भला होता रहेगा और चौक--चौराहे पर उनकी दबिश बनी रहेगी ।हम यह नहीं कहना चाहते की सारे के सारे पत्रकारिता की डिग्री ही लेकर आएं लेकिन उनकी शिक्षा--दीक्षा किसी अच्छे संस्थान से जरूर हुयी होनी चाहिए । व्यवहारिक पत्रकारिता आज लेश मात्र भी देखने को नहीं मिलती है । अनुशासन,मर्यादा और दूसरे को सम्मान देने की परिपाटी तो खत्म होने के कगार पर है ।
पत्रकारों पर बढ़ते जुल्म और प्रताड़ना की सब से बड़ी वजह हमारे कुछ तथाकथित पत्रकार साथी भी हैं ।कहते हैं "गेहूं के साथ घुन्न भी पीसा जाता है" ।"करता कोई है और भरता कोई है" । दूसरे के कृत्य का अंजाम कभी--कभी सधे हुए पत्रकार को भी झेलना पड़ता है ।दशकों से पत्रकार हित की लड़ाई लड़ी जा रही है लेकिन उसका बेहतर फलाफल आजतक हासिल नहीं हो पाया है ।हम पत्रकार साथी कई खेमों में बंटे हुए हैं ।हम बड़े तो हम बड़े की खुशफहमी में हम लगातार नुकसान झेल रहे हैं ।
हम पत्रकार हित की आवाज बुलंदी से उठायें लेकिन सनद रहे की मदद "पात्र" देखकर की जानी चाहिए ।हमेशा अंगुलीमाल बाल्मीकि नहीं बन सकता । किसी भी संगठन को अधिक ताकतवर हम तभी बना सकते हैं जब हमें नेतृत्व पर भरोसा हो और खुद के भीतर "मैं बड़ा हूँ" का अहम् ना हो ।अच्छे और गुणी लोग अपनी बड़ाई कभी भी ध्वनि विस्तारक यंत्र से नहीं करते हैं । अगर आप अच्छे और सच्चे हैं,तो देर--सवेर लोग जान ही जाएंगे ।आईये हमसभी ये संकल्प लें की जिस संगठन से हम जुड़े हैं उसकी मजबूती और पत्रकार हित के लिए हम कोई कोर--कसर नहीं छोड़ेंगे ।कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हम उन पत्रकारों के हित के लिए भी लड़ेंगे,जो हमारे संगठन से नहीं जुड़े हैं ।एकला चलकर भी पत्रकार ना केवल नयी ईबारत लिख सकता है बल्कि तुरुप का पत्ता और मिल का पत्थर भी साबित हो सकता है ।
एकदम सटीक
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