सहरसा कोर्ट परिसर में और कोर्ट की गेट
पर स्थित दुकानों में चढ़ रही है मासूम नौनिहालों के बचपन की बलि/// मुकेश कुमार सिंह ///
इनदिनों सहरसा
में कानून के साए में उड़ रही है कानून की धज्जियां। चौकिये मत ! आज हम आपको
ऐसी साबुत तस्वीरों से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं जो इस काली सच्चाई को
बेपर्दा करेगी।सहरसा कोर्ट परिसर में
और कोर्ट की गेट पर स्थित दुकानों में मासूम नौनिहालों के
बचपन की खुल्लम--खुल्ला बलि चढ़ रही है।जाहिर सी बात है की गरीबी और तंगहाली
के दंश झेलने वाले
परिवारों के ये मासूम बच्चे काम करने को विवश हैं।जिन नन्हें हाथों में कलम
और किताबें होनी चाहिए पेट की भूख मिटाने के
लिए
उन हाथों में हैं जूठे
बर्तन हैं।भविष्य के बड़े सपनो को बेहतर साँचा देने की जगह काम में जुटे
ये बच्चे व्यवस्था से कई बड़े सवाल कर रहे हैं।
सबसे पहले हम आपको कुछ आंकड़ों की सच्चाई से रूबरू कराने जा रहे हैं।बचपन बचाओ आन्दोलन एक सामाजिक संस्था द्वारा पिछले 15 वर्षों के दौरान बिहार से बाहर बंधुआ मजदूरी कर रहे सात हजार से ज्यादा बच्चों को मुक्त कराया गया।यही नहीं कुछ और संस्थाओं के प्रयास से दो हजार से ज्यादा बाल मजदूर भी सहरसा के आसपास के इलाके सहित सूबे के विभिन्य जगहों से मुक्त कराये गए।आप यह जानकार हैरान हो जायेंगे की सहरसा में ऐसे बच्चों के लिए वर्ष 2003 में 40 बाल श्रमिक विद्यालय खोले गए थे लेकिन वर्ष 2006 के अंत होते--होते ये सारे विद्यालय बंद हो गए।यानि बाल मजदूरों के लिए सरकार कहीं से भी गंभीर नहीं रही।
सबसे पहले हम आपको कुछ आंकड़ों की सच्चाई से रूबरू कराने जा रहे हैं।बचपन बचाओ आन्दोलन एक सामाजिक संस्था द्वारा पिछले 15 वर्षों के दौरान बिहार से बाहर बंधुआ मजदूरी कर रहे सात हजार से ज्यादा बच्चों को मुक्त कराया गया।यही नहीं कुछ और संस्थाओं के प्रयास से दो हजार से ज्यादा बाल मजदूर भी सहरसा के आसपास के इलाके सहित सूबे के विभिन्य जगहों से मुक्त कराये गए।आप यह जानकार हैरान हो जायेंगे की सहरसा में ऐसे बच्चों के लिए वर्ष 2003 में 40 बाल श्रमिक विद्यालय खोले गए थे लेकिन वर्ष 2006 के अंत होते--होते ये सारे विद्यालय बंद हो गए।यानि बाल मजदूरों के लिए सरकार कहीं से भी गंभीर नहीं रही।
अब हम आपको लेकर सहरसा व्यवहार न्यायालय के गेट पर लेकर आये
हैं। देखिये यहाँ पर कानून की किस तरह से धज्जियां उड़ रही है। देखिये गेट पर
वकील और मुव्किलों के लिए दुकानें सजी हुयी है।इन दुकानों में आ रहे
ग्राहकों की सेवा में नन्ही जान जुटी हुयी है।घर परिवार की गाड़ी यही
नौनिहालों के हाथों खिंच रही है।ये कमाएंगे तो खुद इनके पेट भरेंगे और घर
का चुल्हा भी जलेगा। हमने सीने को चाक करने वाले जीवन की इस
बदरंग तस्वीर के बाबत यहाँ के वकीलों से जानना चाहा तो कुछ वकील जिसमें से एक सतीश कुमार सिंह हमें
दर्शन की घुंटी पिलाते हुए एक तरफ जहां समाज को कोसा वहीँ सरकार को इसके
लिए पूरी तरह से जिम्मेवार ठहराया।एक वकील साहब वीरेंदर प्रसाद तो दुकानदारों
की तरफदारी में इस कदर उतरे की हम भौचक रह गए।इनका कहना था की ये बच्चे बाल
मजदूर नहीं हैं।ये सभी दुकानदारों के बच्चे हैं जो अपने परिजनों के काम
में हाथ बंटा रहे हैं।हमने इस पुरे मसले पर बच्चों की राय भी लेनी
चाही लेकिन यहाँ का माहौल देखते ही देखते इतना गर्म हुआ की हमें बच्चे तक
पहुँचने ही नहीं दिया गया.
हमारी यह कोशिश है की सुशासन बाबू को किसी भी तरह से यह तस्वीर दिख जाए और उन्हें यह पता चल सके की सहरसा में बचपन ना केवल मुश्ते टीस लिए सिसक रहा है बल्कि बचपन की यहाँ बलि चढ़ रही है।काश ! इन बच्चों के दिन बहुर जाते।
हमारी यह कोशिश है की सुशासन बाबू को किसी भी तरह से यह तस्वीर दिख जाए और उन्हें यह पता चल सके की सहरसा में बचपन ना केवल मुश्ते टीस लिए सिसक रहा है बल्कि बचपन की यहाँ बलि चढ़ रही है।काश ! इन बच्चों के दिन बहुर जाते।
mukesh g, chandan g
जवाब देंहटाएंaapka coverage kafi shandar aur jyadatar burning issues wala hota hai.
nice work.....
hamari shubhkamnaye aapke saath hai.....