खास रिपोर्ट-----
मुकेश कुमार सिंह : ये जीना
भी कोई जीना है। भिखमंगों की एक ऐसी बस्ती जहां पोर--पोर जिन्दगी
ना केवल सिसक रही है बल्कि सरकारी दावों की कलई भी खोल रही है। सहरसा जिला
प्रशासन द्वारा वर्ष 1987 में शहरी क्षेत्र में यत्र-तत्र रह रहे भिखमंगों
को समेटकर पटुआहा गाँव के एक छोर पर विभिन्य तरह की सरकारी सुविधाएं देने
का शब्ज्बाग दिखाकर बसाया गया। लेकिन इनके बसने के करीब ढाई दशक बाद भी 135
परिवार वाली इस बस्ती में आजतक विकास की कोई किरण नहीं पहुंची है। ये बसे तो
हैं सरकारी जमीन पर लेकिन इन्हें वासगीत पर्चा भी आजतक मयस्सर नहीं हुआ
है। इनके बीपीएल और लाल--पीले कार्ड जरुर बने हैं लेकिन इन्हें आजतक उसपर
राशन और किरासन कभी भी नहीं मिला है।
ये भिखारी चाहते थे की इनके बच्चे भी
पढ़े--लिखें और समाज की मुख्य धारा से जुड़ें लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो
पाया। सब के सब बस भीख मांगने को ही विवश रहे। कड़ाके की ठंढ से पूरा बिहार
दहल रहा है लेकिन इन अभागों के लिए जिला प्रशासन ने ना तो अलाव की व्यवस्था
की है और ना ही इनके बीच कम्बल का वितरण ही किया है। प्लास्टिक और मामूली
छप्पर से बनी इनकी झोपड़ी में इनकी दुनिया बसती है, इनके तमाम सपने पलते
हैं।
दोजख में पड़ी यहाँ की बेस्वादी और बेईमान जिन्दगी को आज भी किसी
फरिस्ते के आने का इन्तजार है जो आकर इनकी बेरंग जिन्दगी में बहुतेरे रंग
भर जाए। कड़ाके की इस ठंढ में इनकी जिन्दगी बचनी मुश्किल लग रही है। बस्ती के
लोग कहते हैं की अभीतक इस ठंड में दो लोगों की जान भी जा चुकी है, आगे भगवान
जाने की क्या होगा।
ये समाज के उनलोगों
की बस्ती जिनका कोई पायदान नहीं होता। इस बस्ती में 135 परिवार हैं। हर उम्र
के लोग हैं यहाँ पर। मासूम नौनिहाल की किलकारियां भी यहाँ गूंजती है लेकिन
उसमें किसी तरह की हनक नहीं होती।
देखिये इस बस्ती के लोगों को। जिला
मुख्यालय से सटे इस बस्ती में आजतक विकास की कोई किरण नहीं पहुंची
है। अभी खून को जमा देने वाली कड़ाके की ठंढ पर रही है लेकिन ठंढ से लड़ने के
लिए इनके पास कोई मजबूत हथियार नहीं है।
इस बस्ती में प्रशासन की तरफ से ना
तो अलाव की व्यवस्था की गयी है और ना ही कम्बल का ही वितरण किया गया
है। मासूम बच्चे लकड़ियाँ चुनकर लाते हैं तो आग का इंतजाम होता है।
यहाँ के दर्द बेशुमार हैं। यहाँ के लोगों का कहना है की कभी भी कोई अधिकारी उनका हाल--चाल देखने या पूछने नहीं आते हैं। यहाँ जिन्दगी से जंग लड़ रहे भीम सदा, विजय ऋषि, मंजुला देवी सहित तक़रीबन सभी लोग चाहते थे की उनके बच्चे पढ़ें और अच्छा संस्कार पायें लेकिन पेट की आग बुझाने में ही इनके सारे सपने दफ़न होकर रह जाते हैं।
यहाँ के दर्द बेशुमार हैं। यहाँ के लोगों का कहना है की कभी भी कोई अधिकारी उनका हाल--चाल देखने या पूछने नहीं आते हैं। यहाँ जिन्दगी से जंग लड़ रहे भीम सदा, विजय ऋषि, मंजुला देवी सहित तक़रीबन सभी लोग चाहते थे की उनके बच्चे पढ़ें और अच्छा संस्कार पायें लेकिन पेट की आग बुझाने में ही इनके सारे सपने दफ़न होकर रह जाते हैं।
मुकेश सिंह, सहरसा टाइम्स |
आखिर
सरकार की बड़ी योजनायें किधर और कहाँ हैं। जरूरतमंद हाय--हाय और उफ़।। उफ़ कर
रहे हैं। टीस और दर्द के सैलाब में जिन्दगी यहाँ गुमनामी के अँधेरे में फना
हो रही है। नीतीश बाबू कंप्यूटर की भाषा और जमीनी सच का अंतर समझना
होगा। नौकरशाहों के दिए चश्मे से विकास की बड़ी--बड़ी इमारतों को मत
देखिये। अगर संभव हो तो निरीह और असहाय लोगों तक आपकी कालजयी योजनायें सही ढंग से उनतक पहुंचे
इसके लिए बेहद ठोस उपाय करें।
Bhai this is bihar.
जवाब देंहटाएंmokesh ji aap ki koshish to achi hai magar simri bakhtiar pur ko bhi kabhi jagah dain
जवाब देंहटाएंmd shahid iqbal hindustan express daily
mokesh ji aap ki koshish to achi hai magar simri bakhtiar pur ko bhi kabhi jagah dain
जवाब देंहटाएंmd shahid iqbal hindustan express daily