बीणा बिसेन---
आदिकाल से प्रेम की परिभाषा पर संसय बरकरार है ।सभी काल में प्रेम को अलग--अलग ढंग से परिभाषित किया जाता रहा है ।यह दीगर बात है की प्रेम को आध्यात्मिक मनीषियों, दार्शनिकों, सामाजिक चिंतकों, नैतिक विषय के जानकारों और अन्य विचारकों सहित बुद्धिजीवियों ने अपने--अपने तरीके से परिभाषित किया है लेकिन सभी ने मर्यादा और सीमा का कतिपय पालन भी किया है ।
नारी की देह गाथा को लेकर कई चर्चाओं को समेटे किताबें लिखी गयीं हैं ।वात्सायन के कामसूत्र से रजनीश के सम्भोग से लेकर समाधि तक में नारी की विस्तृत चर्चा हुयी लेकिन प्रेम के विस्तृत विश्लेषण में एक ख़ामोशी और मौन कायम रहा ।यह शास्वत सत्य है की नारी प्रेम की प्रतिमूर्ति है ।नारी के बिना प्रेम की व्याख्या कतई सम्भव नहीं है ।हमारी समझ से यह इसलिए जरुरी है की नारी को प्रकृति से जोड़कर देखा जाता है,जहां उत्पत्ति,सृजन और पोषण है ।प्रकृति और नारी को एक सरीखा जताने की इसलिए कोशिश हुयी है की दोनों जगह हरियाली और सौंदर्य बोध है ।
हम विषय पर बने रहें,इसके लिए प्रेम की चर्चा ही प्रासंगिक है ।आप प्रेम को देखें जो रिश्ते के बीच होता है ।माता--पिता का अपनी संतान से और संतान का अपने माता--पिता से प्रेम,भाई--बहन का प्रेम,नाना तरह के रिश्ते मसलन दादा--दादी,नाना--नानी,चाचा--चा ची,बुआ--फूफा,मौसा--मौसी सहित कई रिश्ते और फिर उनके बच्चों के परस्पर रिश्ते ।यहाँ भी प्रेम कुलाचें भरता है लेकिन रिश्ते के लक्ष्मण रेखा के भीतर ।इन तमाम रिश्तों के बीच जो प्रेम है,उसमें रिवायत और सैद्धांतिक तौर पर दैहिक वासना के लिए किंचित गुंजाईश नहीं है।
पति--पत्नी का रिश्ता भारतीय परिवेश में वैवाहिक बंधन यानि एक सामाजिक संस्कार के द्वारा निर्मित होता है ।पति--पत्नी का यह ऐसा अद्भुत रिश्ता है की प्रेम का अंकुरण और प्रस्फुटन विवाह के बाद होता है लेकिन अब तो प्रेम विवाह का चलन हो गया है इसलिए इसपर ज्यादा बहस समीचीन नहीं है ।पति--पत्नी का ही एक ऐसा रिश्ता है जिसमें प्रेम के कई रंग देखने को मिलते हैं ।इस रिश्ते में दैहिक प्रेम की भी खुली आजादी होती है ।यानि कान--वासना को सिर्फ पति--पत्नी के रिश्ते में सामाजिक स्वीकृति मिली है ।
लेकिन बदलाव प्रकृति का नियम है और समाज वर्तमान समय की हवा का रुख देखकर सामाजिक नियम में बदलाव चाहते हैं और फिर उसी तरीके का कानून बनता चला जाता है और एक नयी रिवायत की शुरुआत होती है।
कई बच्चों की माँ दूसरे पुरुष के साथ दैहिक सम्बन्ध बनाती है,या फिर विवाह तक कर लेती है ।या फिर विवाह पूर्व कुंवारी लडकियां दैहिक सम्बन्ध पुरुषों से बना बैठती हैं ।कई दशक पहले कृत्यों के जो मायने थे,वे आज के समय में सारे जमीनदोज हो चुके हैं ।आपने कई मामले यौन--शोषण के सुने होंगे ।इसकी बुनियाद तथाकथित प्रेम पर ही खड़ी होती है ।
प्रेम और सुख दोनों दो विषय हैं। दैहिक प्रेम और दैहिक सुख दोनों अलग--अलग हैं ।स्त्री--पुरुष के परस्पर विभिन्य अंगों से प्रेम प्रकृति का नियम है लेकिन आप सुख के लिए उसका कैसे उपयोग कर रहे हैं वह आपकी मनोदशा पर निर्भर करता है । आपने नारी देहगाथा को खूब पढ़ा होगा लेकिन पुरुष देहगाथा की कोई परिपाटी शुरू नहीं हुयी । हम पुरुष प्रधान समाज या पुरुषों पर कोई आरोप लगाकर उन्हें कटघरे में खड़ा करना नहीं चाह रहे ।जब मृत्यु अटल है,तो फिर जीवन इतना असहज, क्रूर,दानवी और विभिन्य तरह के दागों से भरा क्यों है ?यह एक ऐसा प्रश्न है जो अनुत्तरित है ।
प्रेम की विशालता को जानिये ।निर्मल,अथाह, नैसर्गिक और महान प्रेम भीतर की खोह से शुरू होता है ।आत्मा उस प्रेम को स्वीकृति देती है और फिर वह प्रेम देह से बाहर निकलता है ।एक नारी और एक पुरुष दोनों के बीच प्रेम अदृश्य आकार लेता है ।यहाँ कोई सामाजिक रिश्ता नहीं होता है । इस प्रेम में समूल जीवन होता है ।यहां एक दूसरे को बड़ा देखने की अभीप्सा होती है ।इस प्रेम के मिश्रण से समाज में ख़ुशी दौड़ाने का जलजला होता है ।पर जीवन हितार्थ कर्म इस प्रेम का मकसद होता है ।इस प्रेम का गवाह खुद ईश्वर होता है और सारी जबाबदेही भी उसी की होती है ।इस प्रेम में भी दैहिक सम्बन्ध बनते हैं लेकिन इसके विराट कद को इन्सानी पैमाने से कभी मापा नहीं जा सकता है ।इंसान और जानवर भी अपने रिश्ते के बीच के प्रेम को समझते हैं ।लेकिन एक ऐसा प्रेम भी होता है जिसे रिश्ते का जामा नहीं दिया जा सकता है ।बेरिश्ता का यह प्रेम सदी में बामुश्किल किसी को किसी से होता है और यह प्रेम आदमजात को बहुत कुछ देकर जाता है ।ऐसा प्रेम ना केवल अमिट और अमर होता है बल्कि जीव लोक में किवदंती की तरह अपनी मौजूदगी भी काबिज रखता है ।
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