सहरसा टाईम्स की ख़ास रिपोर्ट:- हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलने वाले इस इलाके में गरीबी बेकारी, भुखमरी, बीमारी और तरह--तरह की समस्याएं सुबह की पहली किरण के साथ ही मुंह बाए खड़ी रहती है. इस इलाके में गरीबी कुलाचें भर रही है. पेट की आग बुझाना यहाँ पहाड़ खोदकर दूध निकाले के समान है. ऐसे में गरीब हर वक्त किसी तारणहार की बाट जोहते नजर आते है. एक तरफ जहाँ सरकारी महकमा विकास के दावे पर दावे किये जा रहे है वही दूसरी तरफ सहरसा टाईम्स आपको इस तस्वीर से रु ब रु करा कर ये साबित जरूर करती है की विकास तो हो रहा है लेकिन उस पूँजीपतियों का जिनके बदौलत ये सरकार स्टेब्लिश है. मासूम बच्चे आज भी बाल मजदूरी का ग्रास बनकर किसी होटल, ढाबे, चाय की दुकानो पर कप प्लेटों से लेकर नेताजी के घरों में झाड़ू पूछा करने में अपना भविस्य तलाशने पर मजबूर है.
शौचालय में दम तोड़ता बचपन |
सहरसा टाईम्स आपको कुछ आंकड़ों की सच्चाई से रूबरू कराने जा रहे हैं. बचपन बचाओ आन्दोलन एक सामाजिक संस्था द्वारा पिछले 15 वर्षों के दौरान बिहार से बाहर बंधुआ मजदूरी कर रहे सात हजार से ज्यादा बच्चों को मुक्त कराया गया.यही नहीं कुछ और संस्थाओं के प्रयास से तीन हजार से ज्यादा बाल मजदूर भी सहरसा के आसपास के इलाके सहित सूबे के विभिन्य जगहों से मुक्त कराये गए.आप यह जानकार हैरान हो जायेंगे की सहरसा में ऐसे बच्चों के लिए वर्ष 2003 में 40 बाल श्रमिक विद्यालय खोले गए थे लेकिन वर्ष 2006 के अंत होते--होते ये सारे विद्यालय बंद हो गए. यानि बाल मजदूरों के लिए सरकार कहीं से भी गंभीर नहीं रही.
कोसी इलाके में मासूम सपनों की बलि चढाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.सरकार के कागजी आंकड़े और जमीनी सच में कोई मेल नहीं है.गरीब के लिए ही लगभग सारी बड़ी योजनायें है लेकिन गरीब को इन योजनाओं का फलाफल मिलना तो दूर इन योजनाओं की पूरी जानकारी भी नहीं हो पाती है और उनकी अर्थी निकल जाती है. गरीबों की ज्यादातर योजनायें बाबू--हाकिम से लेकर बिचौलियों के बीच ही उछलती--फुदकती रह जाती है. ये गरीब अपने मासूम नौनिहालों के सपने बेचते है. उनकी जिन्दगी और उनकी अहमियत बेचते है. जबतक गरीबी और रोजगार का टोंटा रहेगा इस इलाके में मानव तस्कर बच्चों को यूँ ही खरीदते रहेंगे.
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