***** पाठक द्वारा लिखी गई कविता *****
चुनाव की सरगर्मी छा गई है,
नेताओं में नई उमंग आ गई है।
सफ़ेद लिबासों का बाज़ार सज गया है,
पचास साल वाला भी युवा बन गया है।
साथ चले थे जो अब पीछे छूट गए हैं,
अपने स्वार्थ में एक दूजे से रूठ गए हैं।
शंख फूँका जिनके विरूद्ध, चहुँ ओर छा गए,
फूटी आँख न सुहाने वाले, आज कैसे भा गए।
लुभाने का बहाना अब पुराना हो चुका है,
सीधे-सीधे ठगी का जमाना आ गया है।
खुलेआम वोटरों की नीलामी होगी,
वोट के बदले आधुनिक गुलामी मिलेगी।
रोजगार की बात करने वालो, देखो प्रदेश का क्या हाल है,
विकास की गाड़ी खींचने वाले युवा, ठेके पर बहाल हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य का पहिया गर्त में चल रहा है,
नई पीढ़ियों का भविष्य सड़े मांस की तरह गल रहा है।
केन्द्र और राज्य के नेता कितने महान हैं,
जीने वालों की सुधी नहीं, मरने वालों को अनुदान है।
कौन से अर्थशास्त्र की पढ़ाई हो रही है,
“महंगाई दर” कम और महंगाई बढ़ रही है।
“जनता” और “आम” शब्द का कबाड़ा हो गया है,
क्रीमि लेयर की तरह पार्टियों में भी बंटवारा हो गया है।
“आम” कहलाने वाले बंधु, खास हो गए हैं,
“जनता” के बीच से निकला, जनार्दन हो गए हैं।
:रीतेश कुमार वर्मा ,सहरसा:
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हर कोई अपने खानदान का कल्याण कर रहा है,
बचे-खुचे से कार्यकर्ताओं पर अहसान कर रहा है।
भागते भूत की लंगोटी सही, एम०पी० नहीं तो एम०एल०ए० से ही,
जैसे तैसे, जन के धन से, अपना उत्थान होगा,
जनता जाए भाड़ में, भारत देश महान होगा।
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