तुम देह हो सबसे पहले
और फिर मन या विचार
बनता है इससे फिर जीवन का सार...
आत्मा के बारे में पता नहीं मुझे,
शायद चेतन-अवचेतन को
तुम यूं ही समझती हो...
और प्रेम,
क्या है प्रेम?
शायद तलाश, खोज
मृगमरीचिका देह, मन, विचार
और जीवन के अतल गहराइयों के पार...
पता नहीं,
बस ऐसे ही सोच रहा हूं
हवा में मार रहा हूं तीर
अंधेरे में टटोल रहा हूं तुमको
तुम ही बताओ न कुछ
तुम्हें क्या लगता है,
यकीन मानों
मैं नहीं कर पाऊंगा
यह पता
कभी भी
अकेले ...
************** देवाशीष प्रसून **************
अह़ा ज़िन्दगी
वरिष्ठ कॉपी संपादक
जयपुर
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